Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 394
________________ ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले स्पष्ट है कि धर्माचरण करने पर ही पुण्य-रूपी धन इकट्का होगा और जीव मोक्ष नगर की यात्रा का टिकिट प्राप्त कर सकेगा । धर्मग्रन्थों में इसी बात को दूसरे शब्दों में समझाया गया है नीचं वृत्तिरधर्मेण धर्मेणोच्च: तस्मादुच्चैः पदंवाञ्छन् नरो स्थिति भजेत् । धर्मपरोभवेत् ॥ - आदिपुराण, १०।११६ अर्थात् - अधर्म से मनुष्य की अधोगति होती है और धर्म से ऊर्ध्वगति । अतः उच्च गति चाहने वाले को धर्म का आचरण करना चाहिए । पुराण की इस गाथा में भी यही बात बताई गई है कि पुण्य को न कमाने वाला जीव बिना टिकिट के मुसाफिर की तरह धक्के दे-देकर निम्न गतियों में उतारा जाता है तथा नाना योनियों में भटकता हुआ घोर कष्ट उठाता है । किन्तु जो भव्य प्राणी धर्म व्यापार के द्वारा पुण्य- रूपी धन का संग्रह कर लेता है वह रिजर्वेशन करा लेने वाले यात्री के समान निश्शंक होकर उच्च गति की ओर ले जाने वाली लम्बी यात्रा करता है तथा बिना किसी विघ्न-बाधा के अपने घर पहुँच जाता है । ३८१ अब प्रश्न होता है कि पुण्यरूपी धन कमाया कैसे जाय ? इस विषय में भी बताया गया है कि रागो जस्स पसत्थो, अणुकंपा संसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णत्थि कसं, पुष्णं जीवस्स आसवदि || यानी — जिसका राग प्रशस्त है, अन्तर में अनुकम्पा की वृत्ति है और मन में कलुषभाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है । —पंचास्तिकाय १३५ वस्तुतः संसार के समस्त प्राणियों के होने पर मनुष्य अनेकानेक पापों से बचता है के प्रति करुणा का भाव होगा तो वह किसी । प्रति करुणा और प्रेम की भावना जब उसके हृदय में अन्य जीवों को कटु वचन नहीं कहेगा, किसी Jain Education International ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखेगा और किसी भी जीव की हिंसा नहीं करेगा । ये सभी बातें उसके मानस में क्षमा-धर्म की वृद्धि करेंगी और मोक्ष की सुदूर यात्रा के लिए पुण्य कर्म रूपी धन का संचय होगा । बन्धुओ, यहाँ एक विचार आपके मन में आयेगा कि भगवान के कथनानुसार पाप के साथ पुण्य को भी मोक्ष के लिए छोड़ना पड़ेगा, तब महाराज मोक्ष की यात्रा के लिए पुण्य का संग्रह करने को क्यों कह रहे हैं ? पुण्य तो वहाँ पर साथ में ले जाया नहीं जायेगा । आपका यह सोचना ठीक है, कदापि गलत नहीं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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