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ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले
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आक्रमण करने वाले कषायरूपी आत्मिक शत्रुओं से मुकाबला करने के लिए सर्वप्रथम क्षमारूपी खड्ग हाथ में लेता है ।
ऐसा करने पर ही वह निरापद रूप से आगे बढ़ता है और इस संसार रूपी सराय को सदा के लिए त्याग कर अपनी मंजिल प्राप्त कर लेता है ।
एक हिन्दी भाषा के कवि ने कहा है
यह जगत मुसाफिरखाना है, जन कुटिया न्यारी न्यारी है । हिल - मिल धर्म कमाओ तुम ! जाना सबको अनिवारी है ||
प्रत्येक धर्मशाला, सराय या मुसाफिरखाने में हम देखते हैं कि कतार की कतार छोटी-छोटी या बड़ी-बड़ी कोठरियों की बनी हुई होती हैं । कम पैसे वालों को छोटी कोठरियाँ मिलती हैं और अधिक पैसे वाले बड़े-बड़े कमरे किराये पर लेते हैं ।
सरायों की तुलना
यह संसार भी एक विशाल सराय है, जिसमें कम पुण्यवानी वाले जीवों को लघु शरीर या कष्टकर तिर्यंच योनि के शरीर मिलते हैं और जो पुण्यरूपी अधिक धन साथ में लाते हैं, वे सुखप्रद मानव शरीर प्राप्त करते हैं ।
पर बन्धुओ, जिस प्रकार सराय में आने वाले गरीब और अमीर सभी यात्री थोड़े काल तक ठहरकर अपने-अपने घर चले जाते हैं तथा कितना भी सराय में हवादार, सुन्दर और सुविधाजनक कमरा क्यों न लिया हो, वहाँ हमेशा के लिए नहीं रहते, उसी प्रकार जीव भी इस संसार रूपी सराय में कैसा भी शरीर, भले ही वह तुच्छ कीड़े का हो या मनुष्य का, प्राप्त करने पर भी थोड़े या अधिक दिनों में यहाँ से चल देता है । यह कभी नहीं हो सकता कि कीटपतंग या पशुओं को ही यहाँ से जाना पड़े और मानव क्योंकि पंचेन्द्रियों के सुखों का उपभोग करता हुआ आनन्द से रहता है अतः वह न जाये और सदा ही यहाँ बना रहे ।
आप सभी जानते हैं कि प्रत्येक सराय या धर्मशाला में दो, तीन या चार दिन, इस प्रकार कुछ समय यात्री को ठहरने दिया जाता है और उस नियम के अनुसार अगर यात्री समय पूर्ण हो जाने पर भी न जाय तो उसका बोरियाबिस्तर फिकवा दिया जाता है । यही हाल जीव के लिए संसार रूपी सराय के शरीर रूपी कमरे में रहने पर होता है । अर्थात् उसे जितने दिन का समय मिला हुआ होता है, ठीक उतने ही समय के व्यतीत होने पर कालरूपी चौकीदार उसे वहाँ से निकाल बाहर करता है । यह नियम धर्मशाला के सभी यात्रियों
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