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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
सूत्रकृतांग में यही बात समझाई गई है
एवं तक्काइ साहिता, धम्माधम्मे अकोविया ।
दुक्खं ते नाइतुति, सउणी पंजरं जहा ॥ अर्थात्-जो अज्ञानी व्यक्ति धर्म एवं अधर्म से सर्वथा अनजान रहता है, वह केवल कल्पित तर्क-वितर्कों के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करता है, वह अपने कर्मबन्धनों को नहीं तोड़ सकता, जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता।
वास्तव में ही अज्ञानी या मिथ्यादृष्टि जीव सम्यज्ञान के अभाव में कैसी भी क्रिया, साधना या तपस्या क्यों न करे वह करोड़ों जन्मों तक उद्यम करके भी जितने कर्मों का क्षय नहीं कर पाता, उतने कर्मों का सम्यक्ज्ञानी अपनी वन, वचन और शरीर, इनकी प्रवृत्ति को रोककर स्वोन्मुख ज्ञातापने से क्षणमात्र में ही क्षय कर डालता है । यह जीव आत्म-ज्ञान के अभाव में मुनिव्रत धारण करके अनन्त बार नवम वेयक तक के विमानों में भी उत्पन्न हुआ किन्तु सच्चा सुख हासिल नहीं कर सका । इसलिए ज्ञान के द्वारा धर्म-अधर्म को समझकर ही मुमुक्षु को अपना आचरण शुद्ध बनाना चाहिए और बिना ज्ञान प्राप्त किये निरर्थक हाथ-पैर मारना बन्द करके संसार-सागर को ज्ञानपूर्वक सहज और सीधे ही तैरकर पार कर लेना चाहिए।
गाथा के चौथे और अन्तिम चरण में कहा है- “सीसस्य सोहा विनयेन सन्ति ।" इसका अर्थ है-शिष्य की शोभा विनयगुण धारण करने में है । जो शिष्य विनयी होता है वही अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त करके आत्म-कल्याणार्थ सच्ची साधना करता है।
शिष्य को अन्तेवासी भी कहते हैं । अन्तेवासी का अर्थ है-नजदीक रहने वाला । आप सोचेंगे कि दूर रहने वाला क्या शिष्य नहीं कहलाता ? कहलाता है, अगर वह अपने गुरु की आज्ञा का यथाविधि विनयपूर्वक पालन करे तो। गुरु की आज्ञा का पालन न करने वाला तो उनके समीप रहकर भी अन्तेवासी नहीं कहला सकता।
उदाहरणस्वरूप, गोशालक भगवान महावीर के समीप रहकर भी अन्तेवासी नहीं था और एकलव्य भील गुरु द्रोणाचार्य से दूर रहकर भी स्वयं को अन्तेवासी साबित करता था। भले ही द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य रूप में स्वीकार नहीं किया था तथा अपमानित करके अपने यहाँ से निकाल दिया था।
तो विनय एक महान् गुण है जिसे अपनाकर शिष्य उनके ज्ञान को ग्रहण करता है । जो उच्छखल शिष्य विनय को महत्त्व नहीं देता वह प्रथम तो
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