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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
जल के समान है जो कि भड़के हुए कषायों को शांत कर देता है और क्रोध वह आग है जो कषायों को और भी बढ़ाती है । क्रोधी व्यक्ति को ध्यान नहीं रहता कि वह क्या कह रहा है और क्या कर रहा है ।
अंग्रेजी में एक कहावत है"An angry man opens his mouth and shuts his eyes." अर्थात्-क्रोधी व्यक्ति अपना मुंह खोल देता है और आँखें बन्द कर लेता है।
आप सोचेंगे- 'ऐसा तो नहीं होता । मनुष्य क्रोध में होने पर तो और भी आँखें निकालकर अपने शिकार को देखता है तथा दुर्वचनों की बौछार करता रहता है।' आपका यह विचार भी ठीक है । वास्तव में ही क्रोधी व्यक्ति अपनी आँखें बन्द नहीं करता । किन्तु यहाँ आँखों से अभिप्राय चक्ष -इन्द्रिय से नहीं है वरन् विवेकरूपी आँखों से है। इसीलिए कहावत सही उतरती है। आप और हम सभी यह समझ सकते हैं और समझते भी हैं कि क्रोध का आक्रमण होने पर व्यक्ति को भान नहीं रहता कि वह उचित शब्द कह रहा है या अनुचित । ऐसा विवेक-शून्यता के कारण ही होता है। यह बात नहीं है कि आवेश के समय व्यक्ति के हृदय में विवेक होता ही नहीं, वह तो विद्यमान रहता है किन्तु यह सोया रहता है या कि व्यक्ति उससे काम लेना बन्द कर देता है। इसी को विवेकरूपी नेत्रों का बन्द करना कहते हैं ।
इन विवेक-नेत्रों को बन्द करने से कषाय भाव बढ़ता है तथा क्षमा-भाव लुप्त हो जाता है । बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी कभी-कभी क्रोध में आकर दुर्वचन कह बैठते हैं या अपनी तपस्या के बल पर श्राप दे देते हैं। अगर उस समय उनका विवेक जागृत रहे तो वे इस प्रकार अविवेकपूर्ण कार्य कभी न करें। विवेक ही बता सकता है कि क्या कहना उचित है और क्या कहना अनुचित; या कि, क्या करना उचित है और क्या करना अनुचित । विवेक मानव को सदाचारी बनाता है और अविवेक अनाचारी । इसलिए क्षमा-धर्म को ग्रहण करने वाले आत्म-हितैषी व्यक्तियों को अपने विवेक पर काबू रखना चाहिए और किसी क्षण भी उसे सुप्त नहीं होने देना चाहिए।
गाथा के दूसरे चरण में कहा है-उपशम यानी क्षमा की शोभा समाधि में है । जब अन्तर्मानस में समाधि-भाव रहता है तभी क्षमा-धर्म का पालन समुचित रूप से हो सकता है । उपशम के मूल में भी विवेक ही कार्य करता है। औपपातिक सूत्र में बड़े सुन्दर ढंग से बताया गया है
धम्म णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खई। उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खइ॥
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