Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 361
________________ ३४८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग वह इस मनरूपी घोड़े पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है तथा उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाता है। साधक का कथन है मणोसाहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावइ । तं सम्मं तु निगिण्हामि धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥ -श्रीउत्तराध्ययनसूत्र २३-५८ अर्थात्-यह मन बड़ा साहसिक, भयंकर, दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तीव्र गति से चारों ओर दौड़ रहा है। पर मैं धर्मशिक्षा रूपी लगाम से इसे अच्छी तरह अपने वश में किये हुए हूँ। संत आनन्दघन जी ने भी मन के विषय में कहा है मैं जाण्यू ए लिंग नपुंसक, सकल रदम ने ठेले । बीजी बाते समर्थ छे नर, एहने कोइय न झेले हो। कुन्थु जिन वर, मनहुँ किमही न बाँझे। कवि ने कुंथुनाथ भगवान की स्तुति करते हुए कहा है-"प्रभो ! मैं तो यह समझता था कि मन नपुंसक लिंग है अतः अत्यन्त निर्बल और बुजदिल होगा; किन्तु अब मालूम पड़ा है कि इसने अपनी शक्ति से समस्त पुरुषों को हरा दिया है । बहुत चिन्तन-मनन से मैं यही समझ पाया हूँ कि मनुष्य के लिए और सब कुछ करना सरल है पर इस मन पर विजय पाना बड़ा कठिन है ।" वस्तुतः इस संसार में मन को जीतने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न किये गये हैं जैसे हठयोग, प्राणायाम, मन को निष्क्रिय या मूच्छित बनाना, किन्तु ये सारे प्रयत्न व्यर्थ गये हैं क्योंकि मन की चंचलता मिट नहीं सकी । अतः बुद्धिमानों ने इसे निष्क्रिय करने की बजाय इसकी शक्ति को साधना में लगाया है। जो ऐसा कर सके हैं, उनकी साधना सफल हुई है। आगे जीव राजा की सेना और उसके शस्त्र क्या हैं यह बताया है। इस विषय में कहा है-सत्रह प्रकार के संयम इसकी सेना है और तप इस सेना के अस्त्र-शस्त्र। तप भी अंतरंग और बाह्य, दोनों मिलाकर बारह प्रकार के होते हैं । तप के द्वारा कर्म शत्रुओं का नाश या निर्जरा होती है । सेना के आगे रणभेरी बजती है जिसे कविश्री ने शास्त्रों का कंठों से उच्चारण करना बताया है और ध्यान को नेजा। ठाणांगसूत्र में ध्यान के चार प्रकार कहे गए हैं-- ___ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इनमें से आर्त एवं रौद्रध्यान छोड़ने लायक हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान ग्रहण करने लायक । आगे राजा की प्रजा के विषय में भी बताया है; क्योंकि प्रजा न हो तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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