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संघस्य पूजा विधि:
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रोशनी चार तरह की दिखाई देगी, पर क्या वह चार तरह की है ? नहीं ज्योति एक ही है केवल काँच भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । अगर ज्योति बुझेगी तो किसी भी रंग की दिखाई नहीं देगी और जलती रहेगी तो उसमें कोई रंग नहीं आएगा ।
ठीक यही स्थिति आत्मा की है । आत्मा अमुक पन्थ के या अमुक जाति के व्यक्ति में हो सकती है, पर जाति या पन्थ बाहरी काँच हैं, इससे आत्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता । वह तो स्वयं में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्त चारित्र लिए हुए हैं और अपनी आन्तरिक शक्ति से ही कर्मों का नाश करती है । समय आने पर जिस प्रकार काँच टूट जाते हैं, उसी प्रकार शरीर नष्ट होते हैं और पन्थ या जाति के बाह्य चिह्न मिट जाते हैं । किन्तु आत्मा में कोई अन्तर नहीं आता वह अपने कर्मों के अनुसार अन्य गति को प्राप्त करती है ।
कहने का अभिप्राय यही है कि अशुभ कर्म करने पर तो न जैनियों की, न ब्राह्मणों की और न ही मुस्लिम आदि किसी भी जाति के व्यक्ति की आत्मा मोक्ष रूपी मंजिल को पाती है और शुभ कर्म करने पर इनमें से किसी की भी आत्मा वहाँ पहुँचने से रुक नहीं सकती । अभी मैंने हरिभद्र सूरि, का उल्लेख आपके सामने किया था जिन्होंने कहा है
नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्ष सेवाश्रमणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥
अर्थात् - मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न श्वेताम्बरत्व में, न तर्कवाद में है, न तत्त्ववाद में है और न ही किसी एक पक्ष की सेवा करने में है । वास्तव में तो क्रोध आदि कषायों से मुक्ति होना ही मुक्ति है ।
वस्तुतः व्यक्ति किसी भी मार्ग से चले, उसकी आत्मा संसार से मुक्त हो सकती है, अगर वह कषायों से मुक्त हो जाए तो ।
'अमीर' नामक एक उर्दू भाषा के कवि ने भी कहा है
शेख काबां से गयावां तक ब्राह्मन दैर से ।
एक थी दोनों की मंजिल फेर था कुछ राह का ।
कितनी सुन्दर बात कही गई है कि अपनी आत्मा को विशुद्ध बना लेने के कारण शेख काबा से मोक्ष को गया और इसी प्रकार आत्म-विशुद्धि करके ब्राह्मण 'र' यानी मन्दिर से मोक्ष में गया। फर्क क्या था ? केवल काबा या मन्दिर रूपी मार्ग का । मंजिल दोनों की एक ही थी ।
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