Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 374
________________ संघस्य पूजा विधिः ३६१ जैसे सन्नाटा छाया रहा। संत को तनिक आश्चर्य हुआ पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और अपनी दिनचर्या व रात्रिचर्या में संलग्न रहे। पर अगले दिन संत को उस दुष्ट व्यक्ति की कराहें सुनाई देने लगीं। संत चौंके और शिष्य से बोले- "वत्स ! लगता है कि हमारा पड़ोसी बीमार है, चलो उसे देख आएँ ।” शिष्य आश्चर्य से बोला-"यह क्या भगवन् ! वह व्यक्ति इतने दिनों से रात-दिन हमें गालियाँ सुनाता आ रहा है और आप उसे देखने चलेंगे ?" ___ "तो क्या हुआ ? अगर वह अपने कर्तव्य को छोड़ दे तो हमें भी अपना कर्तव्य भूल जाना चाहिए ? साधु का कर्तव्य तो प्रत्येक प्राणी पर ममता रखना होता है । आओ, देर मत करो।" इस प्रकार कहकर महात्माजी अपने शिष्य के साथ उस व्यक्ति के घर गये। वहाँ जाकर देखा तो मालूम हुआ कि वह मनुष्य तीव्र बुखार के कारण छटपटा रहा है और कराह रहा है। संत उसके समीप बैठे और स्नेह से पूछा ___ “भाई कब से तुम्हें ज्वर चढ़ा है, और क्या यहाँ कोई तुम्हारी सेवा के लिए नहीं है ?" "मेरा कोई भी नहीं है जो सेवा करे।" यह कहकर व्यक्ति चुप हो गया। "अच्छा, मैं तुम्हारी सँभाल कर लूंगा।" कहकर संत ने उसके ताप का अन्दाजा लगाया और सभी उपयुक्त सेवा-कार्य करने में जुट गये। शिष्य बेचारा अवाक् होकर गुरु को देखता रह गया और उनकी आज्ञानुसार कार्य करने लगा। ___ व्यक्ति को तीव्र ज्वर था और वह तीन-चार दिन के बाद कुछ कम हुआ। संत भी तब तक उसकी सेवा में लगे रहे और औषधि तथा पथ्य-पोनी आदि सभी का उन्होंने पूरा ध्यान रखा । बीमार व्यक्ति घोर आश्चर्य और पश्चात्ताप में डूबा हुआ सोचता रहा-"धन्य हैं ये संत जिन्होंने महीनों गालियाँ खाकर भी मेरी इस प्रेम-भाव से सेवा की।" जब वह कुछ ठीक हुआ तो अपने दुर्व्यवहार के लिए मारे पश्चाताप और दुःख के संत के चरणों पर लोट गया तथा रो-रोकर क्षमा याचना करने लगा। संत ने बड़े प्रेम से उसे उठाया और कहा-"भाई ! यह क्या करते हो ? प्रत्येक मानव का कर्तव्य होता है कि वह दूसरे के दुःख-दर्द में काम आये । मैंने भी यही किया है, इसमें कौन सी अनहोनी बात हुई ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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