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क्षमा वीरस्य भूषणम्
तप का महत्त्व बताते हुए सोमप्रभ आचार्य ने कहा हैफलति कलति श्र ेयःश्र ेणी प्रसूनपरम्परः, प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिम् तपश्चरणद मः । यदि पुनरसौ प्रत्यासव्या प्रकोप हविर्भुजो, भजति लभते भस्मीभावम् तदा विफलोदथः ॥
इस सुन्दर श्लोक में बताया है कि तप एक वृक्ष है और वृक्ष में जिस प्रकार एक ही फूल नहीं अपितु फूलों की कतारें रहती हैं, उसी प्रकार तप रूपी वृक्ष सुख रूपी 'सुन्दर फूलों की श्रेणियाँ होती हैं । वस्तुतः तप से नाना फूल प्राप्त होते हैं ।
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अगर ऐसा न होता तो स्वयं चक्रवर्ती भी जो कि बड़े पुण्यशाली होते हैं, छः खण्ड का राज्य प्राप्त करने के लिए तेरह तेले का तप क्यों करते ? परमार्थ मार्ग में अनेक प्रकार की लब्धियाँ और चमत्कार तपस्या से ही होते हैं । बिना तप के भला कौनसी सिद्धि हासिल हो सकती है ?
आचार्य ने आगे कहा है- तपस्या रूपी वृक्ष जो कि अनेकानेक कल्याणकारी फूल प्रदान करता है, इसे शान्ति रूपी जल से सिंचन करना चाहिए तभी वह फूल देगा | अगर शान्ति रूपी जल से सिंचन न करके इसे क्रोध रूपी अग्नि का ताप दिया तो फूल और फल सभी भस्म हो जायेंगे और तप वृक्ष उगाना निष्फल चला जायेगा ।
आप विचार करते होंगे कि तप रूपी वृक्ष के फूलों का वर्णन तो कर दिया, किन्तु इसके फल के सम्बन्ध में नहीं बताया । बन्धुओ, तप रूपी वृक्ष का अमर फल केवल मोक्ष है, जिस फल से बढ़कर अन्य कोई फल नहीं हो सकता ।
अनेक व्यक्ति तपस्या के बारे में कुछ गलत धारणाएँ बना लेते हैं जैसे मराठी में कहा जाता है
तपाअंती राज्य आणि राज्या अंती नर्क ।
यानी - तप करेंगे तो राज्य मिलेगा और उसके बाद नरक में जाना पड़ेगा अतः हम तप क्यों करें ?
यह विचार बड़ा ही भ्रमपूर्ण है । प्रथम तो तप से राज्य ही मिलता है यह बात नहीं, अपितु तप के चूकने से या कि सकाम तप करने से राज्य या स्वर्ग मिलकर रह जाता है । अज्ञानता के कारण विधिपूर्वक तप नहीं किया गया तो पुनः जन्म लेना पड़ता है पर तप का फल मिलना ही चाहिए अत: अधिक से अधिक स्वर्ग या राज्य मिल जाता है । पर राज्यादि घास-फूस के समान हैं
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