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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
समभाव से सुनकर उसे क्षमा नहीं किया और क्रोध से आग-बबूला हो गया तो उसका फल बहुत ही अल्पमात्रा में मिलेगा । धर्मग्रन्थों में कहा भी है कि-'एक तरफ तो वह व्यक्ति है, जो क्रोड़ पूर्व तक नानाविध तप करता है, और दूसरी
ओर वह व्यक्ति है जो सामने वाले के द्वारा कही गई कटु बात को पूर्ण समभाव एवं शान्तिपूर्वक सहन करके उसे क्षमा करता है । ज्ञानी पुरुष इन दोनों की तुलना करते हुए क्षमावान और समभावी व्यक्ति के जीवन को अधिक प्रशस्त बतलाते हैं।
यद्यपि तपस्या का महत्त्व भी कम नहीं है, तप से घोर कर्मों की निर्जरा होती है और आत्मा कर्म-मुक्त होकर मोक्ष भी प्राप्त कर लेती है, किन्तु तपस्या के पीछे किसी फल की प्राप्ति का स्वार्थ एवं क्रोधादि कषाय नहीं होने चाहिए। तप करके अगर क्रोध किया या तप करके अहंकारी बन गये तो सब कराकराया मिट्टी में मिल जाता है । मुनि बाहुबलि का दृष्टान्त आपने अनेक बार सुना ही होगा कि उन्होंने घोर तप किया, यहाँ तक कि उनके चारों ओर घासफुस का अम्बार लग गया तथा पक्षियों ने उसमें घोंसले बना लिये ।
किन्त केवल अपने मान के कारण वे केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सके । जब ब्राह्मी और सुन्दरी नामक उनकी बहनों ने आकर उन्हें समझाया
वीरा म्हारा गज थकी ऊतरो !
गज चढ्यां केवल नहीं होसी रे.... 'वीर म्हारा....। बहनों ने कहा--"भाई, इस अभिमान रूपी हाथी से नीचे उतर आओ। इस विशालकाय हाथी पर जब तक बैठे रहोगे, तुम्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा।"
बहनों की प्रेरणा से बाहुबलि जी को एकदम होश आया और उन्होंने तनिक भी मान न रखकर अपने से छोटों को नमस्कार करने जाने के लिए कदम उठाया। बस, उसी समय वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । जिस प्रकार गौतम स्वामी को मोह छोड़ते ही तत्क्षण केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार बाहूबलि को भी मान छोड़ते ही उसी क्षण केवलज्ञान हासिल हो गया।
स्पष्ट है कि मस्तक पर मँडराता हुआ केवलज्ञान भी तब तक प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक कि राग या द्वेष का लेश भी आत्मा में रहता है । इसीलिए कहा है कि सर्वप्रथम क्रोध कषाय का त्याग करके क्षमावान बनो अन्यथा तपस्या अपना फल प्रदान नहीं कर सकेगी । तप की शोभा क्षमा से है, इसका अभिप्राय यही है कि तपस्या के साथ क्षमा का होना आवश्यक है। ऐसा करने पर ही तप अभीष्ट फल का दाता बनेगा।
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