Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 382
________________ क्षमा वीरस्य भूषणम् ३६६ मौत दे दे !' आप ही बताइए, इस प्रकार किया हुआ तप उन्हें क्या फल देगा ? बहिनें तपस्या करती हैं पर किसी के दो-बात कहते ही सीधा कह बैठती हैं-"म्हने वासी-तिसी ने सताओ तो भगवान थांने देख लेई ।" इस प्रकार भी वे अपने तप के फल को क्रोध के कारण अत्यल्प कर डालती हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जिन साधु-साध्वियों ने क्षमाधर्म को अपनाया और जिन व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं ने इसका पालन किया वे अपनी आत्मा का कल्याण कर गये । आप यह न समझें कि मुनि बनने पर ही मुक्ति मिलती है या सब मुनि मोक्ष में ही जाते हैं। मोक्ष में केवल वे ही जाते हैं जिनके कषायभाव पूर्णतया नष्ट होते हैं। कषायों का नाश न होने पर मुनि मोक्ष में नहीं जा सकते और उनके नष्ट हो जाने से श्रावक भी चले जाते हैं । आवश्यकता रागद्वेष या कषायों के नष्ट होने की है । आनन्द श्रावक मुनि नहीं थे, व्रतधारी गृहस्थ ही थे तथा करोड़ों की सम्पत्ति उनके पास थी। किन्तु वे मर्यादा में रहते थे एवं संसार में रहकर भी संसार से परे थे। उनकी क्षमा का अद्भुत उदाहरण है कि जब गौतमस्वामी भगवान महावीर की आज्ञा से उन्हें दर्शन देने आये तो उन्होंने गौतमस्वामी को अपने प्राप्त अवधिज्ञान के विषय में बताया। गौतमस्वामी ने उनकी बात को नहीं माना और कह दिया-"श्रावकजी, आप झूठ बोल रहे हैं ।" आनन्दजी की जगह और कोई व्यक्ति होता तो वह क्रोध से भर जाता, किन्तु आनन्द श्रावक ने अत्यन्त नम्रता और विनय से केवल यही कहा"भगवन् ! मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ, बात सच है।" ___ गौतमस्वामी ने फिर भी विश्वास नहीं किया और आकर भगवान से इस विषय में पूछा । पर भगवान को तो ज्ञात था अतः उन्होंने आनन्द श्रावक की बात को सही बताया। ____ बन्धुओ, अब भगवान के पट्टधर शिष्य गौतमस्वामी की महानता देखिये कि जब उन्होंने आनन्द श्रावक की सच्चाई को जाना तो उन्हें अपने उन वचनों पर जो वे आनन्द से कह आये थे, घोर पश्चात्ताप हुआ और मीलों का एक चक्कर पहले हो जाने पर भी मुंह में जल की एक बूंद तक लिये बिना पुनः जलती दोपहरी में नंगे पाँव आनन्द जी से अपने कटु-वचन के लिए क्षमा माँगने चल दिये। ___ इधर आनन्दजी के हृदय में तनिक भी अभिमान नहीं हुआ कि भगवान के सबसे बड़े शिष्य गौतमस्वामी पुनः मुझसे क्षमा माँगने के लिए आये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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