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क्षमा वीरस्य भूषणम्
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
प्रवचनों में हमारा मूल विषय 'संवरतत्त्व' पर चल रहा है । अभी तक हम इसके सत्तावन भेदों में से बयालीस पर विचार कर चुके हैं, और आज तयालीसवें भेद को लेना है । यह भेद है क्षमा । प्राकृत भाषा में इसे 'खन्ति' कहते हैं । मुनियों के दस धर्मों में से यह प्रथम है ।
गौतम कुलक नामक सोहा
क्षमा धर्म सभी अन्य धर्मों में जिस प्रकार प्रथम है उसी प्रकार मुख्य और महत्त्वपूर्ण भी है । जो मुमुक्षु इसे सच्चे हृदय से अपना लेता है, अन्य सभी धर्म उसके अधिकार में स्वतः ही आ जाते हैं । 'क्षमा' शब्द ही ऐसा है जो सामर्थ्य की प्रतीति कराता है । समर्थ को 'क्षम' कहते हैं । श्री मानतुंगाचार्य ने भगवान ऋषभदेव की स्तुति करते हुए कहा - 'कर्तुम् क्षमः ।' अर्थात् आप सब कुछ करने में समर्थ हैं। इस प्रकार क्षमा बड़ी अद्भुत एवं अपार शक्ति की सूचक है । भले ही कोई तपस्वी तप करके चमत्कार एवं सिद्धियों की शक्ति प्राप्त कर ले, किन्तु अगर वह क्षमावान नहीं है तो उसकी तपस्या अपना सच्चा फल प्रदान नहीं कर सकती ।
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ग्रन्थ में कहा गया है—
भवे उग्गतवस्स खन्ती, समाहिजोगो पसमस्य सोहा ।
नाणं सुजाणं चरणस्स सोहा,
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सीसस्य सोहा विनयेन सन्ति ॥
पद्य के प्रथम चरण में बताया है— उग्रतप की शोभा क्षमा से होती है । अगर मुमुक्षु उग्र तपस्वी है तथा उसने वर्षों तक तप करके अपने शरीर को सुखा दिया है, किन्तु उसने क्षमा को नहीं अपनाया यानी किसी के
कटु शब्दों को
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