SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७ क्षमा वीरस्य भूषणम् धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! प्रवचनों में हमारा मूल विषय 'संवरतत्त्व' पर चल रहा है । अभी तक हम इसके सत्तावन भेदों में से बयालीस पर विचार कर चुके हैं, और आज तयालीसवें भेद को लेना है । यह भेद है क्षमा । प्राकृत भाषा में इसे 'खन्ति' कहते हैं । मुनियों के दस धर्मों में से यह प्रथम है । गौतम कुलक नामक सोहा क्षमा धर्म सभी अन्य धर्मों में जिस प्रकार प्रथम है उसी प्रकार मुख्य और महत्त्वपूर्ण भी है । जो मुमुक्षु इसे सच्चे हृदय से अपना लेता है, अन्य सभी धर्म उसके अधिकार में स्वतः ही आ जाते हैं । 'क्षमा' शब्द ही ऐसा है जो सामर्थ्य की प्रतीति कराता है । समर्थ को 'क्षम' कहते हैं । श्री मानतुंगाचार्य ने भगवान ऋषभदेव की स्तुति करते हुए कहा - 'कर्तुम् क्षमः ।' अर्थात् आप सब कुछ करने में समर्थ हैं। इस प्रकार क्षमा बड़ी अद्भुत एवं अपार शक्ति की सूचक है । भले ही कोई तपस्वी तप करके चमत्कार एवं सिद्धियों की शक्ति प्राप्त कर ले, किन्तु अगर वह क्षमावान नहीं है तो उसकी तपस्या अपना सच्चा फल प्रदान नहीं कर सकती । Jain Education International ग्रन्थ में कहा गया है— भवे उग्गतवस्स खन्ती, समाहिजोगो पसमस्य सोहा । नाणं सुजाणं चरणस्स सोहा, +++ सीसस्य सोहा विनयेन सन्ति ॥ पद्य के प्रथम चरण में बताया है— उग्रतप की शोभा क्षमा से होती है । अगर मुमुक्षु उग्र तपस्वी है तथा उसने वर्षों तक तप करके अपने शरीर को सुखा दिया है, किन्तु उसने क्षमा को नहीं अपनाया यानी किसी के कटु शब्दों को For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy