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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पर होता है दूसरे पूछ लेते हैं- "पुरुषों के दाढ़ी-मूंछे आती हैं पर महिलाओं के क्यों नहीं ? इसको तो बहुत काल हो गया ?" इस पर कालवादी को चुप होना पड़ता है।
इसी प्रकार नियतिवादी कहते हैं-"होनहार बलवान है अतः होनहार या भाग्य से वस्तु प्राप्त होती है ।" इस पर पुरुषार्थवादी कह देते हैं- "थाली के पास बैठे रहने पर होनहार होगी तो पेट भर जाएगा क्या ? पेट तो हाथों के द्वारा पुरुषार्थ करने पर ही भरेगा।" ___ इस प्रकार पाँचों ही वाद एक-दूसरे को गलत ठहराते हुए अपने मत की पुष्टि करते हैं और उनके न मानने पर आपस में झगड़ बैठते हैं। फैसला केवल स्याद्वाद सिद्धान्त जो कि सब सिद्धान्तों का दादा है, वह करता है । वह यह बता देता है कि रसोई का कार्य सम्पन्न करने के लिए जिस प्रकार सभी साधनों की जरूरत होती है, उसी प्रकार धर्माचरण के लिए भी तुम्हारे सब के सिद्धान्तों का पालन करना जरूरी है । इस प्रकार प्रत्येक को महत्त्व देकर और प्रत्येक मत को धर्म का अनिवार्य अंग मानकर दादाजी झगड़ा समाप्त कर देते हैं।
ध्यान में रखने की बात है कि लोग अपने-अपने देवों को ही देव मानकर अन्य देवों को झूठा साबित करते हैं। इस समस्या का समाधान हमारे 'हरिभद्र सूरि' ने बड़े उत्तम ढंग से किया है कि-"जो राग-द्वेष से रहित हैं, उन्हें ही मैं देव समझता हूँ चाहे वह हरि हों या हर और अन्य भी कोई क्यों न हों। इस प्रकार उन्होंने सभी मत-मतान्तरों को मान्यता दे दी। शर्त केवल यही रखी कि देव राग-द्वष रहित होना चाहिए और कोई भी अन्य चिह्न हो चाहे नहीं।
वस्तुतः पन्थ कोई भी हो- दिगम्बर, श्वेताम्बर, ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध या वैष्णव, मुक्ति उसी आत्मा को मिलेगी जिसमें कषायादि नहीं रहेंगे। कषायों की विद्यमानता में आत्मा की मुक्ति असम्भव है । आत्माएँ सभी की समान हैं, उन पर किसी मत का कोई लक्षण नहीं है । भिन्नता केवल बाह्य क्रिया-काण्डों में हैं, अतः जो भव्य-जीव राग-द्वेष को निर्मूल करने की क्रिया करेगा, वही अपनी आत्मा को पूर्णतया निर्मल बना लेगा और संसार से मुक्त हो जायेगा। दूसरे शब्दों में धर्म, पन्थ, जाति कूल या क्षेत्र आदि कोई भी वस्तु आत्मा की शुद्धि में बाधक नहीं बनती अगर वह कषायों और विकारों से मुक्त होना चाहता है।
उदाहरणस्वरूप, एक कंडील है, उसमें रोशनी के लिए बत्ती जलाई गई है । ज्योति एक ही है पर कंडील के चारों ओर अगर चार रंगों के कांच हैं तो
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