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मोक्ष गढ़ जीतवा को
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धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल मैंने 'दशवकालिक सूत्र' की एक गाथा को लेकर बताया था कि सुनने से ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है और सुनने से ही पाप के मार्ग को भी जाना जा सकता है । इन दोनों मार्गों की जानकारी मुमुक्षु प्राणी के लिए आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है। क्योंकि मार्ग को जाने बिना वह चलेगा कैसे ? मार्ग-दर्शन
आप लोग जानते हैं कि किसी भी मार्ग को जानने के लिए कितना प्रयत्न और परिश्रम करना पड़ता है । बचपन से लेकर युवावस्था तक स्कूल और कॉलेजों में पढ़ते हैं, तब कहीं धन कमाने के मार्ग आप जान पाते हैं और वह धन केवल आपके इसी जीवन में काम आता है, कभी-कभी तो तब तक भी काम नहीं आता, बीच में ही साथ छोड़ देता है।
ऐसी स्थिति में कल्याण का मार्ग जो कि जीव को धर्मरूपी धन प्रदान करता है वह सहज ही कैसे जाना जा सकता है ? खेद की बात तो यह है कि आज का व्यक्ति रुपये-पैसे और हीरे-मोतियों को ही धन मानता है, धर्म को नहीं । इसका कारण यही है कि धन उसे प्रत्यक्ष दिखाई देता है और वह जीवन में उससे लाभ होता हुआ अनुभव करता है । धर्म-रूपी धन की वह कद्र नहीं करता; क्योंकि धर्म न तो स्वयं दिखाई देता है और न ही उससे होने वाले लाभ को वह देख पाता है या समझ पाता है ।
पर धन की अपेक्षा धर्म को समझना मनुष्य के लिए आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, धन कमाने का मार्ग जानना जितना जरूरी नहीं है, उतना जरूरी धर्म कमाने का मार्ग जानना है। इसीलिए भगवान ने शास्त्र-श्रवण की प्रेरणा
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