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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
कार्य किस प्रकार चलेगा ? धन के अभाव में न सेना इकट्ठी होगी, न हथियार आ सकेंगे और न ही रसद-पानी जुटाया जा सकेगा। ___इसीलिए जीव रूपी राजा अपने पास अक्षय कोष भी रखता है । वह कोष है ज्ञान का । साधारण व्यक्ति सोचते हैं कि हमारे पास रुपया-पैसा नहीं है अतः हम गरीब हैं, पर सचमुच ही गरीब तो वह है, जिसके पास ज्ञान रूपी धन नहीं है । जिस भव्य पुरुष के पास जड़ धन नहीं है, पर ज्ञान-धन है, वह उसकी सहायता से संसार में इस विषम मार्ग पर भी बेफिक्र होकर चलता हुआ मोक्षद्वार पर पहुँच सकता है।
ऐसा व्यक्ति तो जड़-धन की आकांक्षा भी नहीं करता और होने पर उसे बोझ मानता है। उतारा हुआ बोझ पुनः नहीं लादूँगा ! __कहा जाता है कि लोक-प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजनदास ने अपने पिता की मृत्यु के बाद वकालत प्रारम्भ की थी। जिस समय उनके पिता की मृत्यु हुई, उन पर दस लाख रुपयों का कर्ज था । चितरंजनदास जी ने बड़ी बुद्धिमानी से प्रेक्टिस की और उससे बहुत पैसा आने लगा।
जब पास पैसा आया तो उन्होंने सर्वप्रथम अपने पिता का लिया हुआ कर्ज अदा करने का निश्चय किया और यह मालूम करना चाहा कि कौन-कौन व्यक्ति हैं, जिन्हें रुपया देना है ? पर उन्हें यह मालूम नहीं हो सका । अतः उन्होंने दस लाख रुपये कोर्ट में जमा करा दिये और अखबारों के द्वारा घोषणा करवा दी कि-"जिन-जिन व्यक्तियों को मुझसे रुपया लेना है वे कोर्ट में अपना नाम बताकर जितना रुपया आता हो वह ले जाएँ।'
किन्तु रुपया कोर्ट में पड़ा रहा और बहुत दिनों तक कोई भी व्यक्ति लेने नहीं आया। आखिर न्यायालय के न्यायाधीश ने चितरंजनदास को अपना रुपया वापिस ले लेने के लिए कहा।
बन्धुओ, आप जानते हैं कि इस पर चितरंजनदास ने क्या किया? उन्होंने कह दिया- "मैंने तो न्यायालय में दस लाख रुपये जमा करके अपने मस्तक का भार कम कर लिया है; अतः अब पुनः उस भार को लादना नहीं चाहता । कोई व्यक्ति अपने रुपये ले जाय या नहीं, मैं इन्हें नहीं ले जाऊँगा । मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है।" __ज्ञानी पुरुष इसी प्रकार धन से उदासीन रहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानरूपी धन को धन मानते हैं तथा रुपयों-पैसों को निरर्थक बोझ । वे भली-भाँति जान लेते हैं कि धन के द्वारा आत्मा का कोई लाभ होने वाला नहीं है अपितु हानि ही
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