Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 357
________________ ३४४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग समय आता है तब बड़ी मुश्किल होती है। क्योंकि जिन व्रतों को आप ग्रहण करते हैं उनके बारे में आप गहराई से जानते नहीं और जानने की कोशिश करते भी नहीं। ___अभी अगर मैं आपसे पूछ लूँ कि जीवतत्त्व के कितने भेद हैं तो शायद ही कोई यह बताएगा कि उसके पाँच-सौ चौसठ भेद हैं, और नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति तथा देव गति के भेद बताने वाला तो संभवतः एक भी नहीं होगा । इसी प्रकार अजीवतत्त्व के पाँच-सौ साठ भेद हैं, पुण्य तत्त्व के नौ हैं, इन्हें भी कोई नहीं जानता होगा। ___ कहने का अभिप्राय यही है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाला व्यक्ति भी जब तक तत्त्वों की जानकारी या ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा तब तक वह किस प्रकार हेय, ज्ञेय और उपादेय-यानी छोड़ने लायक, जानने लायक एवं आचरण में लाने लायक क्या-क्या चीजें हैं, उन्हें कैसे जानेगा ? उदाहरणस्वरूप, पुण्य में भी जानने लायक, ग्रहण करने लायक और छोड़ने लायक है, पर आप सब लोग इस बात को नहीं समझ पाते । जहाज में कब तक बैठे रहोगे ? ___मैं आपको इस विषय में संक्षिप्त रूप से बताता हूँ-हम पहले पुण्य को जहाज की उपमा देते हैं उसके बाद विचार करते हैं कि अगर हमारे सामने एक नदी हो और उसमें बाढ़ भी आ जाय तो उस स्थिति में हम उसे भुजाओं से तैरकर तो पार नहीं कर सकते अतः किसी जहाज का सहारा लेना चाहिए। यह बात जानने लायक है । जहाज स्वीकार करने लायक है और पार उतर जाने के बाद वह छोड़ने लायक है। पुण्य इसी प्रकार जहाज के समान है। इसकी जरूरत तभी तक है, जब तक कि हमारे समक्ष संसार रूपी नदी या सागर है । इसे पार करते ही पुण्य छोड़ना पड़ेगा। ____ अनेक व्यक्ति हमसे कहते हैं-"पुण्य को न छोड़ा जाय तो क्या हर्ज है ? वह कौन-सा दु:ख देता है ?" बन्धुओ, इसका उत्तर मनोरंजक है। मैं आपसे आपके प्रश्न के उत्तर में कहता हूँ कि आपको नदी पार करके अपने घर जाना है, ऐसा ही होता भी है । तो, घर पहुँचने के लिए आप नाव में बैठे और नाव से नदी को पार कर लिया, किन्तु फिर आप उसमें से उतरें ही नहीं और कहें"इसे क्यों छोइँ ? बड़ी अच्छी है यह, मुझे कोई कष्ट नहीं पहुँचा रही।" बताइये ! उस स्थिति में आपको लोग क्या कहेंगे ? और कहने वाले लोग वहाँ न भी हों तो आप स्वयं उस नाव में बैठे-बैठे क्या करेंगे? कब तक बैठेंगे ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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