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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
यह ठीक भी है, भला पाप के मार्ग पर चलकर नरक, निगोद या तिर्यंच गति के घोर दुःख पाने की अभिलाषा कौन करेगा ? दूसरे शब्दों में, जान-बूझकर विष कौन पियेगा?
किन्तु, पापों से नफरत करते हुए भी और पाप के मार्ग से भयभीत होते हुए भी लोग उसी पर चलते हैं । यह कितने आश्चर्य की बात है ? आप जानते हैं कि झूठ बोलना पाप है, पर व्यापार में सुबह से शाम तक झूठ बोलते हैं । आप जानते हैं कि परिग्रह पाप है पर जितना भी इकट्ठा किया जा सके उतना करने के चक्कर में रहते हैं । आप जानते हैं कि हिंसा पाप है, किन्तु अविवेक और असावधानी रखते हुए अनेकानेक जीवों की हिंसा का कारण बनते हैं। इसके अलावा हिंसा दो प्रकार की होती है -(१) द्रव्य हिंसा और दूसरी भाव हिंसा । द्रव्य हिंसा न करने वाला यानी प्रत्यक्ष में किसी प्राणी का वध न करने वाला भी अगर अहिंसा व्रत ग्रहण नहीं करता और मन से किसी का बुरा सोचता है या जबान से किसी के मन को दुखाता है तो वह हिंसा का भागी बनता है । भला बताइये कि आप लोगों में से कौन-कौन हैं जो मन, वचन और शरीर से हिंसा का त्याग कर चुके हैं ? शायद ही कोई ऐसा मिले । तो हिंसा को पाप समझते हुए भी आप हिंसा से नहीं बचते ।
इसी प्रकार राग, द्वेष, कषाय आदि पापों के कारण हैं और इनसे कर्मबन्धन होते हैं, यह आप भली-भाँति जानते हैं, किन्तु कितने व्यक्ति ऐसे हैं जो इन सब पापों के मूल से बचते हैं ? बिरले ही कोई ऐसे मिलेंगे। __ इसीलिए मैं कहता हूँ कि पापों से, नाम से घोर घृणा करने वाले और पापों के फल से डरने वाले आप लोग पाप-मार्ग पर ही तो बढ़ते रहते हैं। फिर कल्याण कैसे होगा ? यह तभी हो सकेगा जबकि आप लोग कम से कम श्रावक के एकदेशीय व्रत तो ग्रहण करें और उनका सचाई से पालन करें। बहुत से व्यक्ति व्रत ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु जहाँ थोड़ी भी दिक्कत आई वहाँ आगार है, कहकर मार्ग साफ कर लेते हैं। जैसे रात्रि भोजन का त्याग किया और जब तक बराबर शाम को खाना मिलता रहा कोई बात नहीं हुई, पर किसी दिन दुकान में खूब ग्राहक आये, खाने की फुरसत नहीं मिली या यात्रा करके घर आये और तब तक दिन समाप्त हो गया तो खाने का रास्ता निकाल लिया कि-अन्दर-बाहर, रोग और भूल का मेरे आगार है । बस, आगार के बहाने एक दिन भी व्रत का पालन नहीं हो सका।
इसी तरह व्रत ग्रहण किये तो धन की मर्यादा करली । किन्तु पुण्य-योग से व्यापार में नफा ही नफा हुआ तो अनाप-शनाप पैसा आ गया। अब क्या
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