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ऊँघो मत पंथीजन !
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महाराज श्री फरमाते हैं- इस जगत में विद्यमान जितने भी जीव हैं वे सभी कर्मों के समूह से निर्मित जन्म एवं मरण रूपी रस्सी की फाँसी से सांसत में पड़े हुए हैं और कर्म रूपी यह रस्सी इतनी मजबूत हो गई है कि इससे छुटकारा मिलना दुष्कर हो रहा है ।
इसका कारण केवल यही है कि आत्मा आत्म-बोध के अभाव में सच्चे सुख यानी आत्मानन्द को नहीं पहचान पाई है तथा इन्द्रियों को अनुभव होने वाले पौद्गलिक या मिथ्यासुख को सुख मान रही है । अपने अज्ञान के कारण यह दुःख को सुख तथा पाप के कुमार्ग को सुमार्ग समझ रही है । तारीफ तो यह है कि जीव गलत रास्ते पर चलता हुआ भी स्वयं को सही पथ का पथिक समझता है जिस प्रकार भटका हुआ मुसाफिर किसी से सही मार्ग की जानकारी नहीं करता और विश्वासपूर्वक उसी गलत रास्ते पर बढ़ता रहता है । पर क्या उस रास्ते पर चलकर वह कभी अपनी मन्जिल प्राप्त कर सकता है ? नहीं, रास्ता गलत होगा तो मन्जिल कैसे मिलेगी ?
उद्बोधन संत-महात्मा मनुष्यों को बोध देकर मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं । शरीर को प्राप्त होने वाला सुख
बन्धुओ; तीर्थकर, अवतारी पुरुष एवं उन्हें अवनति के मार्ग से हटाकर उन्नति के वे पुकार -पुकार कर कहते हैं- “भाइयो ! सच्चा सुख नहीं है और पाप का यह मार्ग मोक्ष की मन्जिल तक ले जाने वाला नहीं है । इसलिए इन्द्रियों के ऐशो आराम की फिक्र छोड़कर आत्मा के आराम की चिन्ता करो अन्यथा अनन्तकाल तक संसार की इस भूल-भुलैया में पड़े रहोगे । इसके अलावा यह मानव-जीवन तुम्हें ऐसा मिला है कि इसमें तुम विवेक और ज्ञान के धनी बनकर सही मार्ग को पकड़ सकते हो तथा उस पर दृढ़ता से चल सकते हो । पर अगर यह समाप्त हो गया तो फिर चौरासी लाख योनियों में नाना शरीर धारण करके भी तुम्हें कभी ऐसा विशिष्ट विवेक और ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, जिसकी सहायता से तुम सत्पथ ढूंढ़ सकोगे और कर्मों की फांसी से अपने को छुड़ा सकोगे । इसलिए अब चेत जाओ तथा मानव जन्म को मुक्तिमार्ग का एक सुन्दर पड़ाव या चौराहा समझो और यहाँ से गलत मार्ग छोड़कर सही मार्ग पकड़ो। इसके अलावा जबकि तुम्हें आगे बढ़ना ही है तो व्यर्थ समय नष्ट मत करो अन्यथा यह जीवन समाप्त हो जायेगा और कालरात्रि आकर गहन अंधेरा फैला देगी ।
कहने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य जन्म में जीवात्मा ज्ञान के प्रकाश का लाभ उठाकर अपनी मन्जिल की ओर अग्रसर हो सकता है अतः अपने आपको
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