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ऊंघो मत पंथीजन !
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प्राप्ति की पर विकलेन्द्रिय बन कर नाना प्रकार के कष्ट उठाता रहा। इस प्रकार विचार कर कि पाँचों इन्द्रियाँ प्राप्त करने से पूर्व तेरी कितनी करुणापूर्ण स्थिति रही होगी ? पर आगे यह भी समझ कि पंचेन्द्रिय बनते ही तू सुखी हो गया हो, यह बात भी नहीं है । जैसा कि आगे कहा गया है
अतिशय पुण्य योग से पाँचों अगर इन्द्रियाँ पाईं। तो मन के बिन वह भी कहिये अधिक काम क्या आई ? निर्दय हिंसक क्रूर हुआ पशु या पक्षी मन पाकर । विविध वेदनाएँ तब भोगी घोर नरक में जाकर ।। प्रबल पुण्य का उदय हआ तब मानवभव पाया है। किन्तु असाता कर्म-उदय से रोगग्रसित काया है । हो काया निरोग मगर मिथ्यात्व मल्ल ने मारा।
मिला दिया मिट्टी में तेरा सम्यक ज्ञान बिचारा ।। पद्यों में बताया है कि अनन्तकाल तक निगोद में और उतने ही समय तक पृथ्वी आदि छः कायों में जन्म-मरण करके भी त्रस पर्यायें प्राप्त की किन्तु सम्पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति न होने पर जीव घोर दुःख पाता रहा ।
__उसके पश्चात् किसी प्रकार पाँचों इन्द्रियाँ भी प्राप्त की तो मन के अभाव में वे न पाने के बराबर ही साबित हुईं और जैसे-तैसे मन भी पाया तो कभी निर्बल बनकर हिंसक पशुओं के द्वारा मारा गया और कभी स्वयं क्रूर एवं हिंसक बनकर अन्य जीवों को मारता हुआ पापों का उपार्जन करता रहा । फल यह हुआ कि मरकर नरकों में गया और भयंकर कष्ट भोगता रहा । वहाँ से किसी प्रकार निकलकर पशु योनि प्राप्त की तो वध-बन्धन, भार-वहन, भूखप्यास एवं सर्दी-गर्मी की पीड़ा मूक होने के कारण सहता रहा ।
इसमें ही न जाने कितना समय व्यतीत हो गया और उसके बाद मानव जन्म मिला । पर कर्मों से तब भी पीछा नहीं छूटा । असाता वेदनीय आदि कर्मों के उदय से या तो जन्म से ही रोगी शरीर मिला, या लूला, लँगड़ा और काना बनकर दुःखी रहा, कभी अंगोपांग पूर्ण हुए तो दीर्घ जीवन नहीं पा सका तथा शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो गया और यह सब नहीं हुआ यानी परिपूर्ण इन्द्रियाँ तथा स्वस्थ शरीर हासिल हो गया तो मिथ्यात्व रूपी शक्तिशाली पहलवान ने सम्यक् ज्ञान को निरर्थक कर दिया। किन्तु पुण्योदय से ज्ञान-दर्शन की भी प्राप्ति हुई तो चारित्र का पालन कठिन हो गया। ऐसा क्यों हुआ? इसक उत्तर कवि ने इस प्रकार दिया है
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