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हे धर्म ! तू ही जग का सहारा
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इसीलिए कर पाते हैं कि सदा अपने मन रूपी मन्दिर में तेरा समस्त पाप एवं ताप रहित शुद्ध रूप प्रतिष्ठित रखते हैं और बाह्य-संसार से मुंह मोड़कर तेरी पूजा-अर्चना करते हैं। क्योंकि
तू सार है वेद पुराण का औ, तू सार है शास्त्र कुरान का भी। तेरे लिए ग्रन्थ समूह सारा, गाती सुगाथा तव शारदा है ।। मैले कुचैले मन में हमारे, आओ विराजो करके विशुद्ध । मिथ्यात्व अज्ञान कषाय भागे, आलोक से पूरित पूर्ण होवें ॥ ध्याते सदा जो नर भावनाएँ, सम्पूर्ण होतीं शुभ कामनाएँ। वे पुण्यशाली महिमा-निधान, होते सदा नायक धर्म के हैं ।
कवि ने अत्यन्त गद्गद होकर भक्तिभाव से प्रार्थना की है--"धर्म ! मैं किस प्रकार तेरी स्तुति करूं ? क्योंकि वेदों का, पुराणों का, कुरान का तथा समस्त ग्रन्थों का सार या निचोड़ तू ही तो है, तेरा ही गाथा देवी सरस्वती गाया करती है अतः तू चिन्तामणि रत्न के समान अमूल्य और दुर्लभ है।" ___"मैं तो मात्र इतनी ही विनती कर सकता हूँ कि तुम मेरे और जगत के अन्य समस्त अज्ञानी प्राणियों के कषायों से काले हुए हृदयों को शुद्ध एवं उज्ज्वल करके उनमें प्रतिष्ठित होओ ! ताकि हमारे हृदयों में से मिथ्यात्व एवं अज्ञान सदा के लिए दूर हो जाय और ज्ञान का पवित्र प्रकाश सतत बना रहे । मैंने पढ़ा है और सुना भी है कि जिन नर-रत्नों ने तेरा आह्वान किया है, उनकी समस्त शुभेच्छाएं पूरी हुई हैं और वे पुण्यात्मा जीव तेरा आधार लेकर ही भव-सागर को पार कर गये हैं।"
तो बन्धुओ, आपने धर्म का महत्त्व कवियों की इन भावनाओं से समझ लिया होगा और मैं आशा करता हूँ कि आप भी 'धर्म-भावना' भाते हुए उसे जीवनसात् करेंगे तथा संवर के शुभ मार्ग पर बढ़ते हुए इस लोक को तथा परलोक को भी सुन्दर बनाने का प्रयत्न करेंगे।
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