________________
संसार का सच्चा स्वरूप
१६६
दुकान है और मैं हर पशु को इस प्रकार अन्न खाने दूं तो कैसे काम चलेगा ? ये सब खा जाएँगे और दुकान का दिवाला निकल जाएगा ।"
संत बोले – “भाई ! यह इसकी ही तो दुकान है ।"
पुत्र तनिक क्रोध से बोला - "कैसी बातें करते हैं आप ? दुकान मेरे बाप की है या इस जानवर की ?"
"यह जानवार ही तो तुम्हारा बाप है ।" संत ने उसी प्रकार शांतिपूर्वक उत्तर दिया । पर पुत्र यह सुनते ही आग-बबूला होकर कह उठा - "आप संत होकर मुझे गालियाँ दे रहे हैं ?”
इस बार संत ने राज खोलते हुए कहा – “भाई ! मैं तुम्हें गालियाँ नहीं दे रहा हूँ, अपने ज्ञान से बता रहा हूँ कि तुम्हारे पिता ने ही मृत्यु को प्राप्त कर यह बकरे का शरीर पाया है जिसे तुम मार रहे थे ।"
यह सुनते ही पुत्र अवाक् हो उठा और कर्मों की ऐसी लीला देखकर माथे पर हाथ धरकर बैठ गया ।
वास्तव में ही संसार ऐसा है । इसकी विचित्रता का वर्णन कहाँ तक किया जाय । इस जगत् में तो प्रत्येक जीव के प्रत्येक अन्य जीव से न जाने कितनी बार नाते जुड़े हैं | कविता में आगे यही बताया गया है
एक जन्म की पुत्री मरकर है पत्नी बन जाती । फिर आगामी भव में माता बनकर पैर पुजाती ॥ पिता पुत्र के रूप जन्मता, बैरी बनता भाई ।
पुत्र त्यागकर देह कभी बन जाता सगा जमाई ॥
ऐसी स्थिति में भला किसे दुश्मन और किसे दोस्त कहा जाय ? जिसे आज हम दुश्मन मानते हैं, वह अगले जन्म में भाई या पुत्र बन सकता है और जिसे आज प्राणों से प्यारा पुत्र या पौत्र कहते हैं वह किसी जन्म में कट्टर दुश्मन ' के रूप में सामने आ सकता है ।
इसीलिए भगवान की वाणी हमें चेतावनी देती है कि संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझो तथा किसी के प्रति क्रूरता, निर्दयता या ईर्ष्या-द्व ेष का भाव मत रखो | आपको ज्ञात होगा कि भगवान महावीर के पैर के अँगूठे को जब चंड कौशिक सर्प ने अपने मुँह में लिया तो स्वयं इन्द्र दौड़कर आए और भगवान के दूसरे पैर पर मस्तक रखकर प्रार्थना की- "प्रभो ! आपकी आज्ञा हो तो इस भयंकर विषधर को सबक पढ़ा दूँ ?"
किन्तु क्या भगवान ने यह स्वीकार किया ? नहीं, उन्होंने इन्द्र के प्रेम एवं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org