________________
२४८
। आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
मनुष्य जन्म तो पा लिया। किन्तु अगर इससे आत्म-साधना करके मुक्ति रूपी लाभ को हासिल न किया तो यह मूल पूंजी भी निरर्थक जायेगी या नहीं ? और गहराई से सोचने की बात तो यह है कि अगर इस पूंजी के द्वारा शुभ-कर्म रूपी फल प्राप्त नहीं किया तो पाप-कर्म रूपी फल मिलेगा क्योंकि आप दोनों में से एक तो करेंगे ही, निश्चेष्ट तो रह नहीं सकते । तो, शुभ कर्मों में बजाय अगर अशुभ कर्मों का संचय किया जायगा तो आप ही विचार कीजिए कि इसका क्या परिणाम होगा ? यही कि, पुण्य रूपी पूंजी डूब जाएगी और पाप-कर्म रूपी कर्ज सिर पर सवार हो जाएगा जिसे चुकाने में न जाने कितने भव व्यतीत करने पड़ेंगे।
इसलिए भाइयो ! जब आप पूंजी और उससे प्राप्त होने वाले हानि-लाभ को समझते हैं, तब फिर अपनी पुण्य रूपी पूंजी को बढ़ाकर मुक्ति रूपी अनन्य लाभ हासिल करने का प्रयत्न क्यों नहीं करते हैं ? आप लोगों को और किस प्रकार समझाया जाय ? भव्य पुरुष तो तनिक से इशारे या छोटे से निमित्त से ही समझ जाते हैं और बोध प्राप्त करके अपनी गाँठ की पूंजी को खोने के बजाय उसका सर्वोच्च लाभ प्राप्त कर लेते हैं ।
पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने अपने पद्य में ऐसे ही महापुरुष समुद्रपाल का उदाहरण दिया है । कर्मोदय का पता नहीं चलता
समुद्रपाल भगवान महावीर के 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' में पंडित, पालित नामक सुश्रावक के पुत्र थे । शिक्षा-दीक्षा के पश्चात् उनका विवाह हुआ और वे गृहस्थ जीवन बिताने लगे।
एक दिन वे अपने महल में बैठे हुए गवाक्ष से बाह्य दृश्य देख रहे थे कि उन्होंने एक चोर को सिपाहियों के साथ जाते हुए देखा । सिपाही चोर के हाथों में हथकड़ियाँ डाले हुए तो थे ही, साथ ही सरे बाजार उसे पीटते हुए ले जा रहे थे।
यह दृश्य देखना था कि समुद्रपाल के हृदय में अनेक विचार आँधी के समान उमड़ने लगे । वे सोचने लगे- "क्या इस चोर ने सोचा होगा कि मेरा आज का दिन ऐसा होगा ? नहीं, अशुभ कर्मों के उदय का किसे पता चलता है कि वे कब उदय में आएँगे ? मैं भी कहाँ जानता हूँ कि आज मेरे शुभ कर्मों का उदय है पर कब कौन से कर्म उदय में आने वाले हैं ? इसलिए अच्छा यही है कि कम से कम अब नवीन कर्मों के बन्धन से तो बचूं । इस चोर ने धन की लालसा के कारण ही इस जन्म में अपने हाथों में हथकड़ियाँ डलवाई हैं और आगे भी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org