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संवर आत्म स्वरूप है
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प्रतिज्ञा कर ली कि मैं अब भगवान की गोद में ही बैलूंगा जहाँ से मुझे कोई नहीं हटा सकेगा तो अपने निश्चय और दृढ़ इच्छा को पूरा करने के लिए वह तपस्या करने चल दिया।
उसके पिता को जब यह मालूम हुआ कि उनका छोटा-सा पुत्र तपस्या करने के लिए जा रहा है तो उन्होंने स्वयं जाकर उसे समझाने का प्रत्यन किया और बड़े प्यार से बोले___"बेटा ! तुम बालक हो, अभी क्या जानो कि तपस्या कितनी कठिन होती है ? तुम वापिस लौट चलो मैं आधा राज्य तुम्हें देता हूँ।"
पर ध्र व ने उत्तर दिया-"पिताजी ! अभी तो मैंने भगवान को पाने का प्रयत्न ही नहीं किया कि आप मुझे आधा सेर अनाज के बदले आधा राज्य देने को तैयार हो गये । पर अगर मैं भगवान को पाने का प्रयत्न करूँगा तो मुझे क्या नहीं मिलेगा ? सभी कुछ मिल जाएगा । अतः अब वापिस नहीं लौट सकता।"
अपने कथनानुसार ध्रुव ने निर्जन वन में जाकर घोर और अद्भुत तप प्रारम्भ कर दिया तथा कड़ाके की सरदी, भयानक गरमी और घनघोर वर्षा की भी परवाह न करते हुए जब तक भगवान को प्राप्त नहीं कर लिया, अपनी तपस्या भंग नहीं की। ___ बंधुओ, यह कथा वैष्णव साहित्य में प्रसिद्ध है पर अपने जैन साहित्य में भी बालक गजसुकुमाल, जिनका शरीर गज यानी हाथी के तालू के समान कोमल था और इसीलिए गजसुकुमाल नाम रखा गया था। दूसरे, मृगापुत्र एवं अयवंताकुमार आदि छोटे-छोटे बालकों ने मुनिधर्म ग्रहण कर लिया था और सम्पूर्ण परिषहों पर पूर्ण विजय प्राप्त करते हुए आत्म-कल्याण किया था ।
तो बालक ध्रुव, गजसुकुमाल, मृगापुत्र एवं ऐवन्ताकुमार आदि बाल-मुनियों ने भी जब घोर परिषह सहन कर लिये थे तो क्या आप धर्मक्रियाएँ, तप या साधना नहीं कर सकते ? अवश्य कर सकते हैं, आवश्यकता दृढ़ संकल्प की है। जब मानव आस्रव के सही स्वरूप को समझकर उससे भयभीत हो जाता है तब स्वयं ही संवर की उपासना में लग जाता है तथा इस मार्ग में आने वाले प्रत्येक परिषह को नरक एवं तिर्यंच योनि के कष्टों से अत्यन्त तुच्छ एवं कम समझकर उन्हें हँसते-हँसते सहन कर लेता है । ये परिषह उसे परिषह के समान ही महसूस नहीं होते ।
कवि ने भी यही कहा है कि संवर की आराधना करते समय किसी भी प्रकार के कष्ट या परिषह से घबराकर अपने कदम मत रोको या उन्हें आस्रव
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