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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
प्राप्त हो सकती है, पर उसका शील पालना धर्म नहीं कहलाता और निर्जरा का कारण नहीं बनता । इसी विषय पर पुनः कहा गया हैअज्ञानकष्टार्जित तापसादयोः,
यद्कर्मनिघ्नंति हि वर्षकोटिभिः । ज्ञानी क्षणेनैव निहन्ति तत्द्र तं,
ज्ञानं ततो निर्जरणार्थभिर्जयः ॥ अर्थात्-हम देखते हैं कि अनेक तपस्वी भूखे रहते हैं, पंचाग्नि तप तपते हैं, पेड़ से औंधे लटके रहते हैं, और इसी प्रकार कई तरह से शरीर को सुखा देते हैं, किन्तु अज्ञान के कारण ऐसी तपस्या से करोड़ों वर्षों में वे जितने कर्मों का क्षय कर पाते हैं, उतने कर्मों का ज्ञानी समभाव, विवेक और संसार के स्वरूप से विरक्त होकर कुछ क्षणों के तप से ही नाश कर लेते हैं। इस प्रकार वही तप कर्मों की निर्जरा करता है जो फलेच्छा से रहित, ज्ञानसहित और निष्कपट होकर किया जाता है ।
मनुष्य आडम्बर, ढोंग या कपट करके मनुष्यों की आँखों में धूल झोंक सकता है, किन्तु कर्मों की आँखों में नहीं । कर्मों के नेत्र तो इतने पैने होते हैं कि जिस प्रकार दर्पण चेहरे को अपने में ज्यों का त्यों प्रतिबिम्बित कर देता है, रंचमात्र भी भूल नहीं करता, इसी प्रकार वे भी मानव की बाह्यक्रिया तथा अन्तर के विचारों को ज्यों का त्यों ग्रहण करके या जान के ठीक वैसा ही फल प्रदान करते हैं।
कपटपूर्वक किये गये तप का एक उदाहरण ज्ञातासूत्र में है कि हमारे उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ प्रभु को भी स्त्री वेद का बन्ध भोगना पड़ा था। क्योंकि उन्होंने अपने पूर्व जन्म में महाबल के जीवन में अपने साथियों से छल या कपट रखकर तपाराधन किया था । स्पष्ट है कि साथियों को वे भ्रम में डाल सके थे, किन्त कर्मों को नहीं। कर्मों ने अपना कार्य किया और उनकी कपटतपस्या का फल स्त्री वेद के रूप में दे दिया।
इसलिए बन्धुओ ! कर्मों की निर्जरा के लिए तप करना आवश्यक है पर वह किस प्रकार किया जाना चाहिए यह समझना मुमुक्षु के लिए अनिवार्य है। अन्यथा तप भी किया और उसे करते समय नाना प्रकार के कष्ट उठाकर शरीर को सुखा भी दिया पर जैसा मिलना चाहिए वैसा लाभ नहीं मिल पाया तो उस तप से क्या लाभ हुआ ? कुछ भी नहीं ।
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