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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
आगे कुछ और भी कड़े शब्दों में कहते हैं- "रे लुच्चे दुराचारी ! कुछ तो लज्जा रख, अन्यथा लोग तुझे ठोकरों से मारकर एक ओर कर देंगे।"
__ कहने का अभिप्राय यही है कि अज्ञानी और मूर्ख व्यक्ति जो कि लोक के स्वरूप को नहीं जानते और तीनों लोकों में प्राप्त होने वाले घोर दुःखों के या अल्पकालीन मिथ्या सुखों की वास्तविकता नहीं समझते, वे अकरणीय कार्य करते हैं और करणीय के समीप भी नहीं फटकते । अपने अज्ञान या मिथ्याज्ञान के कारण ऐसे व्यक्ति सद्गुणों का संग्रह करने की बजाय दुर्गुणों में आनन्द मानते हैं और उनके अनुसार पाप-कार्यों में प्रवृत्त रहकर अपना परलोक बिगाड़ लेते हैं। ___ इस प्रकार के दुर्जनों को साधु-पुरुष येन-केन-प्रकारेण सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं । कभी वे दुगुणी व्यक्तियों को स्नेहपूर्वक समझाते हैं, न समझने पर ताड़ना देते हैं और कभी-कभी चतुराई से उलटी बातों के द्वारा भी उन्हें सीधा रास्ता बताते हैं । एक छोटा-सा उदाहरण हैमहात्माजी की बुद्धिमानी से व्यसन छूटे !
किसी गाँव में एक धनी और सब तरह से सम्पन्न व्यक्ति रहता था। उसके एक ही लड़का था अतः अधिक लाड़-प्यार पाने के कारण वह कुव्यसनों में पड़ गया । परिणाम यह हुआ कि मद्य, मांस तथा वेश्या-गमन आदि भयानक व्यसनों का उसके शरीर पर कुप्रभाव हुआ और वह बीमार हो गया।
पिता के पास धन की कमी तो थी नहीं, अतः उसने अनेक वैद्यों और हकीमों का इलाज कराया तथा कीमती दवाओं का सेवन कराया। किन्तु उन सबका कोई फल नहीं मिला अर्थात् लड़के की बीमारी ठीक नहीं हो सकी।
बेचारा बाप इकलौते बेटे की चिन्ता के कारण घुला जा रहा था कि उस गाँव में एक दिन संत-प्रकृति के एक वैद्यजी आये । धनी व्यक्ति ने उन्हें भी बुलाया और अपने पुत्र की बीमारी के विषय में बताया। वैद्यजी संत थे और निःस्वार्थ भाव से दवा आदि दिया करते थे। स्वयं उनका जीवन बड़ा संयमित, त्यागमय एवं साधनापूर्ण था । लड़के को देखकर वे जान गये कि इसकी हालत कुव्यसनों के कारण बिगड़ी है और जब तक उन्हें नहीं छुड़ाया जायेगा, कोई दवा कारगर नहीं हो सकेगी। अतः मन ही मन विचार करके उन्होंने रोगी को पहले कुछ साधारण औषधि प्रदान की।
लड़के की बुरी आदतें छूटी नहीं थी अतः उसने पूछा
"महाराज ! मुझे पथ्य परहेज क्या रखना पड़ेगा ? वह सब मेरे लिए बड़ा कठिन है।"
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