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हे धर्म ! तू ही जग का सहारा
ही हैं । सारांश में, देव या देवी नाराज न हो जाएँ, इसलिए लोग उनके समक्ष अमुक फूल या अमुक वस्तु चढ़ाते हैं । इतना ही नहीं, उन्हें सन्तुष्ट रखने के लिए पहले तो नर-बलि भी दिया करते थे, पर अब राज्य द्वारा दण्डित होने के भय से मुर्गी या बकरों का बलिदान करते हैं । कहीं-कहीं भैंसे भी मौत के घाट उतारकर देवी - देवताओं को प्रसन्न किया जाता है ।
ऐसी स्थिति में भला उन्हें सच्चा देव या देवी माना जा सकता है क्या ? पर लोग मानते हैं । वे भैरव, भवानी, शीतला, बजरंगवली और ऐसे ही अनेक देवी-देवताओं की पूजा करके विचार करते हैं कि ये हमारा कल्याण करेंगे । ऐसे व्यक्ति यह नहीं सोचते कि आत्म-कल्याण तो कर्मों से सर्वथा मुक्त होने में है और कर्म - मुक्ति तभी हो सकती है जबकि कर्मों से मुक्त देवों की आराधना की जाय ।
हमारे आगम कहते हैं
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भवबीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनोवा
नमस्तस्मै ॥
- वीतराग स्तोत्र, प्रकरण २१-४४
अर्थात् — जन्म-मरण के बीज को उत्पन्न करने वाले राग-द्वेषादि जिनके नष्ट हो गये हैं, वह नाम से चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन हो, उसे नमस्कार है ।
कितनी सुन्दर भावना है ? हमारा दर्शन किसी की निन्दा नहीं करता, किसी की अवहेलना नहीं करता और किसी की आराधना करने से इन्कार नहीं करता । यह केवल इतनी ही अपेक्षा रखता है कि व्यक्ति के आराध्य को नष्ट राग-द्वेष वाला एवं जन्म-मरण से मुक्त हो जाने वाला होना चाहिए । भले ही उस आराध्य का नाम ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो, राम हो, कृष्ण हो, ईसा हो, बुद्ध या महावीर हो ।
यही विचार अक्षरश: यथार्थ भी है क्योंकि वही देव अन्य प्राणियों को तारने में सहायक बन सकेगा जो स्वयं संसार सागर को तैरकर पार कर चुका होगा ।
सच्चे गुरु
अब सच्चे गुरु की पहचान का सवाल सामने आता है । आज हमारे सामने अपने-आपको गुरु मानने वालों की भी भरमार है। कदम-कदम पर ऐसे गुरु प्राप्त होते हैं जो किसी भी विशेष प्रकार का बाना पहनकर अपने आपको महात्मा
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