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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
लोक या नरकों से सम्बन्धित है । अधोलोक लोक का निचला हिस्सा है और जीव के लिए घोर कष्टों का प्रदाता भी है। उस लोक में पहुँच जाने पर जैसा कि अभी मैंने आपको बताया है जीव कम से कम भी दस हजार वर्ष तक घोर यातनाएँ सहता है और अगर पापों का विशाल पुज साथ ले गया तो तेतीस सागरोपम तक उसी प्रकार दुःख के सागर में डूबा रहता है। इसलिए लोक के स्वरूप की जानकारी करते समय अधोलोक के विषय में चिंतन करना अत्यन्त आवश्यक है ताकि आत्मा को लोक के उस भयानक हिस्से में जाने से बचाया जा सके । जो भव्य प्राणी वीतराग के वचनों पर विश्वास रखते हुए अधोलोक की भयंकरता को समझ लेंगे, वे ऐसी करणी स्वप्न में भी नहीं करेंगे, जिसके कारण वहाँ जाना पड़े। (२) मध्यलोक या तिरछा लोक
यह मध्यलोक अधोलोक से ऊपर और ऊर्ध्वलोक से नीचे है तथा इसकी क्षेत्र मर्यादा अठारह सौ योजन की है। इस समतल भूमि से नौ सौ योजन नीचे से लेकर नौ सौ योजन ऊपर तक । अब यह देखना है कि इस लोक में कौनकौन रहते हैं ?
मैंने अभी आपको बताया था कि अधोलोक में दस प्रकार के भवनपति असुर एवं पन्द्रह प्रकार के अम्ब एवं अम्बरीष आदि परमाधार्मिक देवता उनके २० इन्द्र तथा नारकीय जीव होते हैं। पर मध्यलोक में उनसे भिन्न प्राणी निवास करते हैं, जिनकी संख्या गणनातीत है।
तो इस मध्यलोक में प्रथम तो मैं आपको यह बता दूं कि यहाँ पर निम्न जाति के सोलह प्रकार के देव होते हैं, जिन्हें वाणव्यन्तर कहा जाता है । वाणव्यन्तरों में पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर एवं गन्धर्व आदि होते हैं जिनके बत्तीस इन्द्र भी रहते हैं । इनके अलावा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा इन पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव जिनमें सूर्य तथा चन्द्र, इन्द्र कहलाते हैं । ये सभी इस मध्य या तिरछे लोक में निवास करते हैं । भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस आदि वाणव्यंतर इस पृथ्वी पर जंगलों में, वृक्षों पर, झाड़ियों पर या सूने और टूटेफूटे घरों में रहा करते हैं।
इन सबके अलावा जैसा कि हम देखते हैं, यहाँ पर असंख्य तिर्यंच एवं मनुष्य अपना-आपना जीवन बिताते हैं । मध्य लोक में असंख्य द्वीप और असंख्य सागर हैं । जिन्हें हम नहीं देख पाते किन्तु सर्वज्ञों ने कर-कंकणवत् इन्हें देखा है तथा इनका वर्णन किया है ।
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