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सोचो लोक स्वरूप को
एक बढ़कर हैं यानी वहाँ घोर दुःख हैं । पर उनमें जाने वाले जायेंगे और दुःख भोगेंगे। किन्तु आप क्यों फिक्र करते हैं और क्यों उपदेश देते हैं ?”
संभवतः ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर में संत तुकाराम जी ने कहा है-उपकारासाठी बोलो है उपाय, येण विण बुड़ता है जन, न देखवे डोला, ये तो तुका म्हणे माझी देखतील डोले, भोग देते
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काय आम्हा चाड़ ? कलवला म्हणोनि । बैंकठे येईल कलो ।
संत कहते हैं- "भाई ! हमें तुमसे कोई स्वार्थ नहीं है, न ही तुमसे कुछ लेना-देना है । हम तो केवल यही चाहते हैं कि परलोक में तुम्हें कष्ट न भोगना पड़े, इसीलिए तुम्हारी आत्मा की भलाई के लिए उपदेश देते हैं ताकि तुम शुभ कार्य में प्रवृत्ति करो और आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ो ।”
आगे कहा है – “जो व्यक्ति धर्म-साधना नहीं करेगा वह संसार - सागर में गोते लगायेगा और यह हमसे देखा नहीं जाएगा। हमारी आत्मा जीवों के कष्ट से अत्यन्त कलपेगी मात्र इसीलिए हम तुम्हें समझाते हैं ।”
" यह निश्चय है कि अशुभ में प्रवृत्त न होने वाला जीव शुभगति में जायेगा अपने ज्ञान के द्वारा नरक एवं तिर्यंच गति में जो जीव होंगे उन्हें कष्ट पाते हुए देख सकेगा, इसीलिए हम तुम्हें समझाने का प्रयत्न करते हैं कि पाप-कार्यों को तथा कुव्यसनों को छोड़ दो ताकि हमें यह देखना न पड़े कि तुम निम्न गति में असहनीय दुःख भोग रहे हो ।”
वस्तुतः संत-महापुरुष इसी प्रकार अपनी आत्मा की भलाई करने के साथसाथ अन्य प्राणियों की भलाई करने का भी प्रयत्न करते हैं और इस प्रकार आठ प्रकार की दया में से 'स्व- दया' एवं 'पर - दया' का पालन करते हैं । स्वयं तो पाँच समिति तथा तीन गुप्ति, जिन्हें अष्ट प्रवचन रूपी माता कहा गया है, उसे अपनाकर अपने पाँच महाव्रतों का रक्षण करते ही हैं, साथ ही श्रावकों को भी बारह अणुव्रतों के पालन की प्रेरणा अपने सदुपदेशों से देते हैं जिससे अपने कल्याण के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों का भी कल्याण हो सके ।
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भले ही अणुव्रतों का पालन करने वाले संवर, निर्जरा और मोक्ष के मार्ग पर शनैः-शनैः बढ़ेंगे, किन्तु सही मार्ग पर चलेंगे तो देर से ही सही पर मंजिल अवश्य मिलेगी । इसी उद्देश्य को लेकर वे पाप के गलत मार्ग पर चलने वाले अज्ञानी व्यक्तियों को संवर रूपी सही मार्ग बताते हैं तथा उस पर बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं ।
तो बन्धुओ प्रसंगवश कुछ आवश्यक बातें आपको बताई गई हैं जोकि अधो
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