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सोचो लोक स्वरूप को
(३) ऊर्ध्वलोक
ऊर्ध्व लोक मध्यलोक की इस समतल भूमि से नौ सौ योजन की ऊँचाई के बाद है । उसमें बारह देवलोक हैं। नौ लोकांतिक और तीन किल्विषी । किल्विषी यानी पापी । आपके हृदय में आश्चर्य और सन्देह होगा कि देव बन जाने के बाद भी पापी कैसे ? इसका कारण यही है कि उच्च करणी तो की किन्तु साथ में पाप भी किया । परिणाम यही हुआ कि देव बनने पर भी निम्न या य जाति के किल्विषी देव बने । हम देखते हैं कि मनुष्यों में ऊँची जाति व्यक्ति भी होते हैं, तथा अस्पृश्य जाति के भी । इसी प्रकार लोकांतिक देवलोकों में उच्च जाति के देव होते हैं तथा किल्विषी निम्न जाति के । ऐसे देव स्वर्गों में हेय समझे जाते हैं तथा इनका जीवन बड़े निकृष्ट ढंग से बीतता है । ये लोग आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और वैर-विरोध के कारण कर्म -बन्धन करते रहते हैं ।
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किल्विषी का परिणाम
आप प्रश्न करेंगे, किल्विषी देव बनने के क्या कारण होते हैं ? जबकि वे उच्च करणी करके देव बन जाते हैं फिर भी पापी तथा हेय क्यों कहलाते हैं ? इस विषय में श्री उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्याय की एक गाथा में बताया गया है—
नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहूणं ।
माई अवण्णवाई, किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥ ३६-२६६॥
इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि - " नाणस्स यानी ज्ञान का, केवलज्ञानी प्रभु का, धर्माचार्य का, संघ का एवं साहूणं अर्थात् साधुओं का अवर्णवाद बोलने वाला माई यानी मायावी व्यक्ति किल्विषिकी भावना का सम्पादन करता है ।"
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किल्विष का अर्थ कालिमा या कलुष होता है । जिस व्यक्ति के हृदय में औरों की निन्दा, अपवाद या अवहेलना करने की भावना होती है उसे किल्विषी भावना वाला कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति 'श्रुत' की निन्दा करके ज्ञान की अवहेलना करता है, केवलज्ञानी की सर्वज्ञता एवं सर्वदर्शिता आदि में शंकाएँ करता हुआ उनमें दोष बताता है, आचार्यों में अवगुण निकालता है तथा संघ की निन्दा करता हुआ साधु-साध्वियों की भी अवहेलना करता रहता है ।
परिणाम यह होता है कि स्वयं अच्छी साधना या करणी करते हुए भी कपटपूर्वक ज्ञानियों की, केवलियों की, आचार्यों की, संघ की तथा साधु-साध्वियों
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