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सोचो लोक स्वरूप को
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहिनो !
संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों में से हम उन्चालीस भेदों का विवेचन कर चुके हैं । आज चालीसवाँ भेद 'लोक-भावना' को लेना है। लोक भावना बारह भावनाओं में से ग्यारहवीं भावना भी है ।
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इस भावना को भाने के लिए अधिक चिन्तन-मनन की आवश्यकता नहीं है अपितु समझने की आवश्यकता है कि लोक का क्या स्वरूप है या उसके कितने प्रकार हैं ? यह समझने से ज्ञात हो जाता है कि जीव अनंतकाल से किस-किस लोक में भ्रमण करता चला आ रहा है । लोक त्रिकाल, ध्रुव, नित्य एवं शाश्वत है । जीव इसी में, जैसा कि आगे बताया जायगा, ऊपर, नीचे और मध्य में जन्म-मरण करता हुआ परिभ्रमण करता रहता है । इसलिए लोक के विषय में समझना आवश्यक है । इसके विषय में जानने से और चिन्तन करने से तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है, मन बाह्य विषयों से हटकर स्थिर हो जाता है तथा मानसिक स्थिरता के कारण आध्यात्मिक शांति और सुख की प्राप्ति होती है ।
एक विद्वान कवि ने लोक के विषय में लिखा है
लोक अनादि अनन्त है, नर्तक पुरुषाकार, ऊँचा चौदह राजु है, चेतन - कारागार ।
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यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि जहाँ छहों द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश कहलाता है और जहाँ जीव की गति नहीं होती, वह सम्पूर्ण स्थान महाशून्य या अलोकाकाश कहलाता है । उसके विषय में कुछ भी जाननेसमझने या चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है । अतः हमें लोक के सम्बन्ध में विचार करना है ।
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