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सोचो लोक स्वरूप को
जनम-जनम मरते यहीं, फिर पैदा हों फिर मरें, हैं इस लोकाकाश के, संख्यातीत प्रदेश,
मर-मर पैदा होत, जन्म मृत्यु का स्रोत ।
जन्म-मरण कर जीव ने एक जगह पर जीव है,
छुआ न कौन प्रदेश । जन्मा बार अनन्त, कहते ज्ञानी संत ।
मरा अनन्तों बार है, पद्यों में लोक के विषय में बताया गया है कि यह अनादि है और अनन्त है । यानी कब इसका प्रारम्भ हुआ यह नहीं कहा जा सकता और अन्त कब होगा यह भी कोई नहीं जानता । स्पष्ट है कि अन्त कभी नहीं होगा ।
इस लोक के संख्यातीत प्रदेश हैं और उन समस्त प्रदेशों को प्रत्येक जीव छुआ है तथा एक ही बार नहीं अपितु अनेक-अनेक बार छुआ है । अर्थात्लोक के प्रत्येक प्रदेशों में जीव अनन्तों बार जन्मा है और मरा है । यह लोक चौदह राजू ऊँचा है तथा आकार की दृष्टि से कमर पर हाथ रखकर नाचते हुए पुरुष के समान है । उस पुरुष के कमर से नीचे का भाग अधोलोक, कमर से ऊपर कंठ तक का भाग मध्य लोक एवं कंठ से ऊपर का भाग उर्ध्वलोक कहा जा सकता है |
इस प्रकार लोक के तीन भाग हैं - ( १ ) उर्ध्वलोक, (२) (३) अधोलोक । ये कहाँ हैं और इनमें कौन-कौन रहते हैं, पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने भी अपने सुन्दर पद्य वेगे वेगे करे कहाँ संठाण आलोक लोक,
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नीचे हैं नरक सात वेदना अपार है। भौनपति तथा तिर्यकलोक में व्यंतर नर,
ज्योतिषी तिर्यंच द्वीप सागर विचार है । ऊर्ध्वलोक कल्प अहमिंद्र अनुत्तर सुर,
सिद्ध शिला उर्ध्वदिश सिद्ध निराकार है । करत सज्झाय ऐसी नमिराज रिषि भाई,
भावना तिलोक भावे सो ही लहे पार है । afart प्राणी को प्रतिबोध देते हुए कहते हैं -- " अरे जीव ! तू दिन-रात सांसारिक कार्यों के लिए ही शीघ्रतापूर्वक दौड़-धूप करता रहता है, पर जरा लोक के स्वरूप पर भी तो विचार कर जिससे समझ सके कि तुझे अनन्तकाल
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मध्यलोक एवं इस विषय में में कहा है
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