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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना
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यहाँ एक बात आपको बताना आवश्यक है कि तप से कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु तप का अर्थ आप केवल उपवास करना ही न समझें । तप बारह प्रकार का होता है । जिनमें से छः प्रकार का बाह्य तप कहलाता है और छः प्रकार का तप अंतरंग |
(१) बाह्य तप
शास्त्रों में बाह्य तप के विषय में बताया है
"अणसण, मुणोयरिया, भिक्खायरियाय रस परिच्चाओ । काय कलेसो, संलीणया य, बज्झो तवो होई ।"
(२) अन्तरंग तप
" पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सगो, एसो अब्भिन्तरो तवो ।”
अर्थात् — बाह्य तप हैं— अनशन, उनोदरी, भिक्षाचरी, रस परित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता ।
तथा अन्तरंग तप इस प्रकार हैं- प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान एवं व्युत्सर्ग ।
तो बंधुओ, ये बारहों प्रकार के बाह्य एवं आभ्यंतर तप कर्मों की निर्जरा करते हैं । समय अधिक न होने से इन सभी के विषय में विस्तृत रूप से नहीं बताया जा सकता, किन्तु आप यह भली-भाँति समझ लें कि जिस प्रकार ज्ञानपूर्वक अनशन करके कर्मों की निर्जरा की जा सकती है, उसी प्रकार विनयभाव एवं सेवा आदि करके भी कर्मों का क्षय किया जा सकता है । कोई भी तप एक-दूसरे से कम महत्त्व का नहीं है । महत्त्व की कमी - बेशी भावना पर निर्भर होती है । यथा— कोई मुमुक्षु अनशन या उपवास शारीरिक स्थिति के कारण नहीं कर सकता तो भी वह अपने कर्मों की निर्जरा स्वाध्याय, ध्यान, पापों का प्रायश्चित, विनय या सेवा करके भी निश्चय ही कर सकता है ।
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अंत में केवल इतना ही कहना है कि हमें ज्ञानपूर्वक तप करके कर्मों की निर्जरा करनी चाहिए। किसी भी प्रकार के फल की इच्छा से किया गया तप हमारे असली उद्देश्य की प्राप्ति नहीं करा सकता और न हो मजबूरी से भोगा हुआ कष्ट भी निर्जरा का कारण बनता है |
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जो भव्य प्राणी निर्जरा के सही स्वरूप को समझकर निष्काम भावना से अंतरंग एवं बाह्य तप की आराधना करेंगे, वे ही इस लोक और परलोक में सुखी बन सकेंगे ।
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