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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
कवि ने आगे लिखा है
निर्जरा तत्त्व आराध मुक्ति के कामी, बन गये देव पूजित त्रिलोक के स्वामी। सीखा है जिनने जीवन सफल बिताना, कर कर्म निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना। हे तात ! बात अवदात सुनो यह मेरी, कर कर्म-चमू चकचूर हो रही देरी। निर्जरा भावना शुद्ध हृदय से भाते,
वे पुरुष रत्न हैं लोकोत्तर सुख पाते । इन पद्यों में भी यही बताया गया है कि जिन महामानवों ने मानव जन्म की महत्ता समझ ली थी वे निर्जरा-तत्त्व की आराधना करके देव-पूज्य और त्रिलोक के स्वामी बन गये एवं मोक्ष रूपी ठिकाने पर पहुँच चुके । न उन्हें पुनः पुनः जन्म लेने की आवश्यकता रही और न मरने की । ___ आगे बड़े मार्मिक शब्दों में मानव को प्रेरणा दी है कि- “हे भाई ! अब तो तुम मेरी बात मानकर कर्मों के इस पुंज को नष्ट करने का प्रयत्न करो। देखो तुम्हारा जीव अनन्त-काल से चारों गतियों में बार-बार जन्म लेकर असह्य दुख उठाता आ रहा है और इसके छुटकारे में कितनी देरी होती जा रही है ? अगर इस जीवन में भी तुम नहीं चेत पाये तो फिर क्या होगा ? फिर से न जाने कितने समय तक दुख उठाना पड़ेगा। इसलिए शुद्ध हृदय से संवर-मार्ग पर चलो और कर्मों का क्षय करके लोकोत्तर सुख की प्राप्ति करो ताकि वह सुख शाश्वत रहे ।'
तो बंधुओ ! हमें और आपको कर्मों की निर्जरा में जुट जाना है, साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि वह अकाम निर्जरा न रह जाय । मैं यह नहीं कहता कि आप तप नहीं करते । करते हैं, यह दिखाई देता है; किन्तु उसके पीछे भावना क्या होती है, यह आप स्वयं ही समझ सकते हैं। इसलिए यह भली-भाँति समझ लीजिए कि आपकी तपस्या के पीछे किसी प्रकार की लोकेषणा या परलोकेषणा तो नहीं है ? अगर आपके द्वारा इहलौकिक प्राप्ति या पारलौकिक प्राप्ति की इच्छा से तपस्या की जायेगी तो इच्छानुसार फल की प्राप्ति होना भी संभव है पर वह फल सीमित है अतः अपनी तपस्या के फल को बाँधने का प्रयत्न नहीं करना है । तपस्या करना है निष्काम भावना से । तभी उसका कभी सीमातीत फल मोक्ष भी हासिल हो सकने की संभावना रहेगी।
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