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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना
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पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने भी तपस्या के महत्त्व को बताते हुए, कैसी तपस्या करनी चाहिए इसे अपने एक सुन्दर पद्य में समझाया है। पद्य इस प्रकार हैतपस्या के किये बिना हटे न करम पुज,
__ इहलोक आरशे सो तप नहीं करवो । परलोक इन्द्रादिक पदवी न चाहे भव,
जस कीरति के लिए सोही परिहरवो ॥ करम कलेश लेश तप नाश कर करवे को,
___ निर्जरा प्रमाण अरु पाप सेती डरवो। भावना अर्जुनमाली भाई पाये शिवपद,
कहत तिलोक भावे जाके जग तरवो॥ महाराज श्री का कथन है कि तप किये बिना अनन्तकाल से इकट्ठे हुए कर्मों के भारी समूह को नष्ट नहीं किया जा सकता अतः तप करना आवश्यक है; किन्तु अपने तप के पीछे हमें इस लोक में सुख एवं यशादि मिले तथा परलोक में उच्च गति प्राप्त हो, ऐसी भावना मत रखो । तप के साथ केवल यही विचार करो कि मुझे अपने पूर्वबद्ध समस्त कर्मों का क्षय करना है तथा सदा के लिए संसार के क्लेशों से छुटकारा पाना है।
कर्मों की निर्जरा किस प्रकार की जाती है, इसका उत्तम प्रमाण हमारे सामने अर्जुनमाली का है। अर्जुनमाली साधुत्व ग्रहण करने के पश्चात् तपाराधन में लग गये । उस समय उनके शत्रुओं ने पत्थरों से तथा डण्डों से प्रहार कर-करके उन्हें महान् कष्ट दिया ।
किन्तु उस कष्ट को उन्होंने दुःख या त्राहि-त्राहि करके सहन नहीं किया, अपितु दुःख देने वालों को क्षमा करते हुए पूर्ण समत्व भाव से 'मेरे कर्मों की निर्जरा हो रही है' यह विचार करते हुए शान्त-भाव से सहा । परिणाम यह हुआ कि वे कर्म-मुक्त हुए और संसार से छुटकारा पा गये ।
कहने का अभिप्राय यही है कि साधु-साध्वी या अन्य स्त्री-पुरुष इस संसार में नाना प्रकार के संकटों से घिरते हैं और उनके कारण अनेक प्रकार के कष्ट सहन करते हैं, किन्तु कर्मों की निर्जरा केवल वही कर पाते हैं जो ज्ञानी एवं समभाव से परिपूर्ण होते हैं । संक्षेप में कर्मों की निर्जरा होना भावनाओं पर निर्भर है । कष्ट एक सरीखे हो सकते हैं, पर उन्हें व्यक्ति किस भावना से
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