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संवर आत्म स्वरूप है
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संवर की उपासना करते हैं तथा संवर रूपी तीक्ष्ण शस्त्र से कर्मों को काटते हैं ।
आगे कहा गया है—
क्षमा आदि दस धर्म से, मण्डित चेतन - राम । निर्विकार निर्लेप हो, बने पूर्ण निष्काम ॥ सुधा सदृश फल से सहित, धर्म वृक्ष अवदात । तेरे प्रांगण में खड़ा मूढ़ ! क्यों न फल खात ॥ है जननी वैराग्य की, समता रस की स्रोत । भव्य भावनाएँ सदा, भवसागर की पोत ॥
कवि भारिल्ल जी ने व्यक्ति को उद्बोधन देते हुए कहा है- "अरे अज्ञानी पुरुष ! तू मुक्ति की कामना तो करता है, किन्तु अपनी आत्मा को क्षमा आदि दस धर्मों से युक्त बनाकर निर्विकार, संसार से अलिप्त और निष्काम क्यों नहीं बनाता ? तेरी आत्मा के आँगन में ही धर्म रूपी कल्पवृक्ष अमृत के सदृश्य मुक्ति रूपी फल लिए खड़ा है, पर तू अपनी करनी से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों नहीं करता ?"
क्या तू नहीं जानता कि समता आत्मिक आनन्द और वैराग्य की जननी है ? अगर तु समभाव अपना ले तो स्वयं ही तेरा मन संसार से उपराम हो जाएगा और हृदय में भव्य एवं उत्तम भावनाएँ अपना स्थान बना लेंगी जोकि इस भव-सागर की नौका के समान हैं । जो महामानव इन्हें अपना आधार बना लेता है, वह फिर कभी संसार सागर में नहीं डूब पाता ।
आगे कहा है—
अरे जीव ! दुःख नरक के सहे अनन्ती बार । आज सहा जाता नहीं, तनिक परिषह भार ॥ त्याग अशुभ व्यापार को, रहना शुभ में लीन । है सम्यक् चारित्र यह, कहते धर्म प्रवीन ॥ अष्टम संवर भावना, आत्म-शुद्धि का मूल । चिंतन कर पाले सुजन, भव-सागर का कूल ॥
बन्धुओ, आज व्यक्ति जबान से तो स्वर्ग और मोक्ष की बातें करते हैं, तथा
इन्हें पाना चाहते हैं; किन्तु धर्म - क्रिया या तप साधना करने का जब अवसर
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