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कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना २६६ है सुख का सागर यही मोक्ष का कारण, आराधन इसका सकल कर्म संहारण । पहले जो बाँधे कर्म स्व-फल देते हैं,
फल देकर फिर वे तुरत दूर होते हैं । कवि ने कहा है--'जिन भगवान के कथनानुसार जब आत्मा से क्रमशः कर्म हटते जाते हैं तब उसे निर्जरा कहते हैं। यहाँ एक बात और ध्यान में रखने की है कि 'निर्जरा' शब्द केवल जैनदर्शन में ही आया है। अन्य किसी भी धर्म या दर्शन में यह नहीं पाया जाता। हाँ, संस्कृत में देवता का एक नाम अवश्य निर्जर बताया गया है ।
तो कविता में कर्मों के विषय में कहा गया है कि पूर्व में बँधे हुए कर्मों में से जब जिन कर्मों के उदय का समय आता है, तब वे उदित होते हैं और अपना फल प्रदान करके फिर तुरन्त दूर हो जाते हैं। पुनः वे आत्मा को नहीं घेरते । आगम में कहा भी है
पक्के फलम्मि पडिए, जहण फलं बज्झए पुणो विटे। जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयमुवेई ॥
--समयसार-१६८ अर्थात्-जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुनः वृन्त यानी वृक्ष से नहीं लगता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से विलग होने के पश्चात् पुनः आत्मा को नहीं लग सकते।
आशय यही है कि वीतराग अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर देते हैं और फिर वे कभी भी कर्म-बन्धनों से नहीं जकड़ने । कर्मों का क्षय करना निर्जरा है तथा निर्जरा ही मोक्ष एवं शाश्वत सुख का कारण है । आत्मा तभी परमात्मस्वरूप की प्राप्ति करती है या अपने शुद्ध स्वरूप में आती है, जबकि उसके शुभ एवं अशुभ, सभी कर्म उससे दूर हो जाते हैं। उस अवस्था को ही हम मोक्ष कहते हैं।
निर्जरा के प्रकार निर्जरा दो प्रकार की बताई गई है। पहली सकाम निर्जरा और दूसरी निष्काम निर्जरा । इस विषय में कविता में आगे कहा है
है द्विविध निर्जरा जिनवर ने बतलाई। · पहली सकाम निष्काम दूसरी भाई !
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