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संवर आत्म स्वरूप है
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हुए अशुभ- व्यापार से बचकर शुभ व्यापार में लगना चाहिए । अर्थात् आस्रव के मार्ग को छोड़कर संवर का मार्ग अपनाना चाहिए। जो भव्यप्राणी संवर को उसके शुद्ध स्वरूप सहित ग्रहण कर लेते हैं वे संसार की प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक प्राणी से निरासक्त रहते हैं । वे विचार करते हैं
करें जुदाई का किस-किस की रंज हम ए जौक । कि होने वाले हैं सब हमसे अनकरीब जुदा ॥
कवि जौक का कहना है - "हम किस-किस की जुदाई या वियोग का रंज करें ?' सभी तो एक दिन हमसे दूर होने वाले हैं ।"
वस्तुत: ऐसी अनित्य भावना जब मानस में उत्पन्न हो जाती है, तब संवर के मार्ग पर चलना तनिक भी कठिन नहीं होता। इसलिए प्रत्येक मुक्ति के अभिलाषी को 'संवर-भावना' भाते हुए त्याग, तप एवं संयमपूर्वक अपने कर्मों की निर्जरा करके इस दुर्लभ जीवन का सर्वोच्च लाभ 'मोक्ष' हासिल करने में जुट जाना चाहिए ताकि भव-सागर का निकट आया हुआ किनारा कहीं पुनः दूर न चला जाय । ऐसा करने पर ही शाश्वत सुख की प्राप्ति हो सकेगी ।
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