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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
वह इस विचार में डूबी हुई थी कि सन्त धर्मरुचि उसके घर आहार के लिए आ गये । उसने ज्योंही सन्त को देखा, मन में प्रसन्न हुई तथा अन्य वस्तुओं के साथ कड़वे तुम्बे के शाक का पात्र पूरा ही उनके पात्र में उड़ेल दिया । यानी पूरा शाक उन्हें बहरा दिया।
धर्मरुचि अणगार भिक्षा लेकर अपने स्थान पर लौटे तथा अपने गुरु व अन्य सन्तों के साथ आहार करने के लिए बैठे । जब तुम्बे का शाक चखा गया तो ज्ञात हुआ कि यह अत्यन्त कड़वा है। यह जानकर धर्मरुचि के गुरुजी ने उन्हें शाक का पात्र देते हुए कहा-"वत्स ! निर्वद्य या निर्जीव स्थान देखकर इसे बाहर फेंक आओ।"
धर्मरुचि गुरु की आज्ञा से पात्र लेकर स्थानक से बाहर आये और एक स्थान पर खड़े हो गये। उन्होंने शाक उड़ेलने के लिए पात्र झुकाया ही था कि अचानक उनके मन में कुछ विचार आया और उन्होंने शाक के एक दो टुकड़े जमीन पर डाले । कुछ ही क्षणों के बाद वे देखते क्या हैं कि शाक में डाले हुए मीठे के कारण उन जमीन पर डाले हुए टुकड़ों के आस-पास अनेक चींटियाँ आ गई हैं और कड़वेपन से मर रही हैं ।
यह देखकर धर्मरुचि ने उन प्राणियों की मृत्यु का कारण स्वयं को मानकर घोर पश्चात्ताप किया साथ ही सोचा -- “मैंने एक-दो बूंद या सूक्ष्म टुकड़े जमीन पर डाले, केवल उतने से ही इतनी चींटियाँ मर गई हैं तो अगर यह सम्पूर्ण शाक जमीन पर डाल दूंगा तो इस विषवत् वस्तु से तो न जाने कितनी चींटियाँ या अन्य सूक्ष्म जीव मर जाएँगे।"
इस समस्या का हल उन्हें जब और कुछ नहीं सूझा तो वे स्वयं ही समस्त शाक खा गये । यह विचारकर कि-"अगर मैं यह शाक उदरस्थ कर लूंगा तो असंख्य प्राणियों की रक्षा तो हो जाएगी भले ही मुझ एक का कुछ भी हो जाय ।"
हुआ भी ऐसा ही, अनिष्ट उनका हुआ । अर्थात् कड़वे तुम्बे के कारण कुछ समय छटपटाने के पश्चात उनका देहान्त हो गया। पर उनके हृदय में अन्त तक अपार प्रसन्नता इस बात की रही कि मैं असंख्य जीवों के प्राण-नाश से बच गया । इस शरीर को तो एक दिन जाना ही था, आज ही सही । ____ तो बन्धुओ, सच्चाई से महाव्रतों का तथा समितियों का पालन करने वाले मुनि केवल मल-मूत्र आदि ही नहीं, कोई भी ऐसी वस्तु जिससे अन्य जीवों की हिंसा हो सकती हो, सजीव स्थान पर नहीं डालते ।
इतनी सावधानी और यतना रखने के कारण ही वे आस्रव से बचते हुए
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