________________
संवर आत्म स्वरूप है
२६१
उसे केवल इसलिए देते हैं कि उसकी सहायता से तप एवं साधना की जाती है । वे साधना में तथा संयम निर्वाह में सहायक होने के कारण रूखा-सूखा एवं अल्प आहार अगर निर्दोष मिलता है तो उदर को प्रदान करते हैं । रसलोलुपता एवं सरस व्यञ्जन का आनन्द लेने की इच्छा से खूब पेट भर कर खाना है यह वे कभी स्वप्न में भी नहीं सोचते । इसीलिए नीरस और अल्प खुराक ग्रहण करते हैं । ऐसा करने से क्या लाभ है ? यह बृहत्कल्पभाष्य में बताया गया है
अप्पाहारस्स न इंदियाइं विसएस संपत्तंति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि ।।
अर्थात् -- जो अल्पाहारी होता है, उसकी इन्द्रियाँ विषय भोग की ओर नहीं दोड़तीं । तप का प्रसंग आने पर भी वह क्लांत नहीं होता और न ही सरस भोजन में आसक्त होता है ।
इस गाथा के द्वारा आप समझ गये होंगे कि महामुनि क्यों निर्दोष आहार की गवेषणा करते हैं, क्यों रूखा-सूखा, नीरस और अल्प आहार ग्रहण करते हैं तथा निर्दोष आहार न मिलने पर चाहे प्राण चले जायँ पर दोषयुक्त पदार्थ नहीं लाते । अब हम चौथी समिति को लेते हैं ।
(४) आदान-निक्षेप समिति - इस समिति का पालन करने के लिए साधुसाध्वी अपने पात्रादि बड़ी यतना से लेते हैं एवं उसी प्रकार यतना से ही रखते हैं । इससे दो लाभ होते हैं । प्रथम तो पात्र टूटते नहीं, असावधानी से रखने पर अथवा जोर से रखने पर सूक्ष्म जीवों की हिंसा नहीं होती दूसरे खटपट करते हुए रखने पर असभ्यता भी जाहिर होती है अतः उससे बचा जा सकता है ।
(५) परिष्ठापना समिति - यह पाँचवीं समिति है । इसके अनुसार सन्त मल-मूत्रादि का त्याग जीवरहित भूमि देखकर करते हैं ताकि उनकी हिंसा न हो पाये । मल-मूत्रादि के अलावा भी कोई वस्तु परठनी होती है तो वे ऐसे स्थान पर उसे डालते हैं, जहाँ जीव न हों ।
धर्मरुचि मुनि के विषय में आपने पढ़ा या सुना ही होगा । नागश्री नामक एक स्त्री ने अपने घर पर तुम्बे का शाक बनाया, किन्तु पहले उसकी जाँच न करने से पता नहीं चला कि वह तुम्बा कड़वा है । जब शाक बन गया तो उसे मालूम हुआ कि यह तो जहर के समान कड़वा है ।
नागश्री सोचने लगी- “अब क्या किया जाय ? घरवालों को पता पड़ेगा तो नाराज होंगे तथा मेरी मूर्खता पर मुझे तिरस्कृत करेंगे ।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org