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कर आस्रव को निर्मूल
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प्रकार प्रमाद रूपी चोर भी सतत ताक लगाये रहता है कि साधक तनिक भी कहीं चूक जाय तो तुरन्त उसका आत्म-धन मैं छीन लूं।" इसलिए ही भगवान आदेश देते हैं
अंतरं च खलु इमं संपेहाए, - धीरो मुमुत्तमवि णोपमायए।
-आचारांग सूत्र १-२-१ अर्थात्-अनन्त जीवन-प्रवाह में मानव-जीवन को बीच का एक सुअवसर जानकर धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे।
वस्तुतः जीव अनन्त-काल से चारों गतियों में नाना प्रकार के शरीर और जीवन प्राप्त करता आ रहा है अतः अनन्त-काल की तुलना में मनुष्य जीवन का अत्यल्प समय क्या मूल्य रखता है ? कुछ भी नहीं, मात्र एक अवसर ही तो ! फिर इस अवसर में भी अगर प्रमाद उसे घेर ले तो फिर मुक्ति-प्राप्ति की आकांक्षा क्या पुनः भव-सागर में विलीन नहीं हो जाएगी ? अवश्य हो जाएगी; क्योंकि मानव-जीवन फिर से प्राप्त करना दुर्लभ होगा और इसके अभाव में कोई भी अन्य योनि काम नहीं आएगी। किसी उर्दू भाषा के कवि ने भी कहा है
गनीमत समझ जिन्दगी की बहार,
मिलता न जामा है यह बार-बार। वस्तुतः यह मानव देह रूपी चोला बार-बार नहीं मिलता । मिल गया है, यही गनीमत है, अतः इसे पाकर मुमुक्षु को भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि मानवभव में ही विशिष्ट विवेक की प्राप्ति होती है, इसी में बुद्धि का प्रकर्ष होता है, इसी के निमित्त से सन्त जन उच्च गुणस्थानों की प्राप्ति करते हैं और इसी भव से मुक्ति हासिल होती है। फिर ऐसे महान लाभकारी जीवन को प्राप्त करके भी सर्वोत्तम साधना नहीं की या सर्वोच्च लक्ष्य की ओर नहीं बढ़े तो वह मूल पूंजी भी चली जाएगी जिसके बल पर यह सर्वोत्तम पर्याय मिली है।
मूल पूँजी को बढ़ाना है या खोना ? बन्धुओ, आप लोगों में से अनेक बड़े कुशल व्यापारी हैं अतः अच्छी तरह जानते हैं कि मूल पूंजी को किस तरह बढ़ाया जाता है या किस प्रकार इससे अनेक गुना अधिक लाभ कमाया जाता है। ऐसी स्थिति में आप भली-भाँति समझ सकते हैं कि बड़े परिश्रम से प्राप्त की हुई पुण्य रूपी गाँठ की पूंजी से
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