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संवर आत्म स्वरूप है
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किसी की प्रतीक्षा कर रही है । वह बड़ी उत्कंठा से अपनी निगाहें मार्ग में बिछाये हुए थी।
उसी समय एक यात्री वहाँ आया। उसने अतुल स्वरूप वाली एवं तेजस्वी नारी को देखकर समझ लिया कि आज गंगा देवी स्वयं ही यहाँ विराजी हुई हैं। किन्तु गंगा की प्रतीक्षापूर्ण आँखों को देखकर वह यह नहीं समझा कि वह क्या चाहती है और किसकी प्रतीक्षा में है अतः उसने बड़ी श्रद्धा से उसे प्रणाम करते हुए विनयपूर्वक पूछ लिया___ "गंगा मैया ! लाखों व्यक्ति स्वयं ही आपके दर्शन करने के लिए लालायित रहते हैं तथा अपने पापों को धोने के लिए आपके जल में डुबकियाँ लगाया करते हैं । किन्तु आज आप स्वयं किस भाग्यवान की प्रतीक्षा में हैं ?" । ___गंगा ने उत्तर दिया- "भाई ! आने के लिए तो लाखों व्यक्ति हैं जो प्रतिदिन मेरे जल का स्पर्श करते हैं; किन्तु जो पर-धन, पर-स्त्री एवं पर-द्वेष से रहित सदाचारी व्यक्ति होते हैं, उनकी संगति से मैं स्वयं भी कृतार्थ हो जाती हूँ। पर खेद है कि ऐसे व्यक्ति क्वचित् ही यहाँ आते हैं। इसलिए मैं आज स्वयं बड़ी उत्कंठा से यहाँ बैठी हुई हूँ कि कोई ऐसा आचारनिष्ठ व्यक्ति आये जिसके आगमन से मैं धन्य हो सकूँ।" श्लोक के द्वारा यही बताया गया है
परदार, परद्रव्य, परद्रोह पराङ्गमुखः ।
गंगा ब्रूते कदागत्य, मामयं पावयिष्यति ॥ अर्थात्-गंगा कहती है-पर-स्त्री, पर-धन और पर-द्रोह से निवृत्त रहने वाला व्यक्ति मुझे कब पवित्र करेगा ?
बन्धुओ, कितना सुन्दर रूपक है ? इसके द्वारा यही बताया गया है कि केवल पर-स्त्री, पर-धन और पर-द्वेष से रहित मनुष्य भी उस गंगा से अधिक पवित्र होता है, जिसमें नहाकर लोग अपने पापों को बहाते हैं । गंगा ने यह नहीं कहा कि धन का और स्त्री का सर्वथा त्याग करने वाला ही महान होता है, केवल पर-धन और पर-स्त्री का त्यागी भी उसे पवित्र करने के लिए काफी है।
इस बात से आप समझ गये होंगे कि श्रावक, अगर अपने बारह व्रत भी धारण करलें और उनका सम्यक रूप से पालन करें तो धर्मपरायण एवं सदाचारी कहलाते हैं । यह कोई बड़ा त्याग नहीं है और न तनिक भी कष्टकर है। आप धन रख सकते हैं, पत्नी रख सकते हैं और संसार के सभी भोगों को भोग सकते हैं, केवल धोखेबाजी, बेईमानी या एक शब्द में जिसे अनाचार कह सकते हैं, उससे बचते रहें तब भी मुक्ति के मार्ग पर शनैः-शनैः बढ़ सकते हैं।
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