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संवर आत्म स्वरूप है
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सुरक्षित रहता है, पर दिन भर खर्च करते रहने से कम होता चला जाता है । जीवात्मा की शक्ति भी इन्द्रियों को खुला रखने से निरर्थक चली जाती हैं और उसके जाने के मार्ग इन्द्रियाँ ही हैं। - पंजाब में भाखड़ा नांगल बाँध बनने से पहले सम्पूर्ण जल निरर्थक चला जाता था, किन्तु उसे बाँध के रूप में रोक देने से जल इकट्ठा हुआ और करोड़ों रुपयों का लाभ फसलों के रूप में प्राप्त होने लगा। ठीक यही हाल आत्म-शक्ति का है । जब तक इन्द्रियों पर काबू नहीं रखा जाता, तब तक वह शक्ति पाप-कर्मों के उपार्जन में निरर्थक चली जाती है और उस पर भी कर्मफल दु:ख के रूप में भोगने पड़ते हैं ।
किन्तु अगर मन और इन्द्रियों पर संवर रूपी बाँध बनाया जाय तो आत्मशक्ति रूपी जल शुभ-कर्मों के उपार्जन और मुक्ति-प्राप्ति के रूप में महानतम फल प्रदान करता है । ध्यान में रखने की बात है कि हमें आत्म-शक्ति को कुण्ठित या निष्क्रिय नहीं बनाना है, अपितु उसका सही उपयोग करना है । लोग कहते हैं—'मन को मारना चाहिए तभी मुक्ति हासिल होगी।' पर मैं ऐसा नहीं कहता। मन को मार दिया जायेगा तो वह न तो अशुभ की ओर प्रवृत्त होगा और न ही शुभ की ओर । आखिर मरा हुआ मन कुछ करेगा भी कैसे ? इसलिए मन रूपी घोड़े को मारना नहीं है वरन् उसे मोड़कर संवर और निर्जरा के मार्ग पर चलाना है और यह तभी हो सकता है जबकि सांसारिक प्रपंचों से मन को उपराम किया जाय। पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने भी फरमाया हैआडम्बर तज, भज संवर को सार यार !
__ ममता निवार तज विषय विकार है। राग, द्वेष, खार परिहार चार कषायों को,
____ बारे भेदे तप धार ऐही तंतसार है ।। भावना विचार ठार पर प्राणी-आत्मा को,
छोड़ के सागार अणगार पद तार है। ऐसे हरिकेशी भाई भावना भरमटार,
कहत तिलोक भावे सो ही लहे पार है ।। कहा गया है-अरे मित्र ! इन सांसारिक आडम्बरों को छोड़ और संवर की आराधना कर । कोई प्रश्न करे कि यह किस प्रकार किया जाय ? तो इसी
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