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अपना रूप अनोखा
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उक्त पद्य में कहा गया है-"भाई 'अन्यत्व भावना' मुक्ति रूपी मंजिल की सीढ़ी है तथा शाश्वत सुख प्रदान करने वाली है। इसलिए हृदय में पूर्ण समभाव रखते हुए प्रतिपल इसे मानस में रखो।"
अनेक महापापी भी इस भावना के हृदय में सच्चाई से उतरते ही अपना आत्म-कल्याण कर गये हैं और यह यथार्थ भी है । सच्चे हृदय से इसे भाने पर कौन ऐसा व्यक्ति है, जो अपने समस्त पाप और संसार के संताप को दूर नहीं कर सके ? यानी इसी भावना के कारण आज तक सभी भव्य प्राणी भव-सागर पार कर सके हैं, और जो करना चाहते हैं, वे भी इसे धारण करेंगे तभी संसार की वास्तविक स्थिति समझ कर इसे छोड़ सकने में समर्थ बनेंगे । अन्यत्व भावना ही मुक्तिरूपी मंजिल का प्रथम चरण या प्रथम सीढ़ी है अतः प्रत्येक मुमुक्षु को उसे अपने अन्तर्मानस में रमाना चाहिए।
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