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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
इसलिए प्रत्येक मानव को शरीर की अशुचिता एवं अनित्यता पर विचार करते हुए इसे केवल धर्म-साधनों में सहायक मानना चाहिए, इससे अधिक कुछ नहीं । खेद की बात तो यह है कि लोग इस शरीर को अधिकाधिक सुख कैसे पहुंचाया जा सके, इसी में रात-दिन लगे रहते हैं। उनके समक्ष मनुष्यजीवन का अन्य कोई उद्देश्य ही नहीं होता। परिणाम यह होता है कि जिस शरीर को सुखी बनाने के लिए वे रात-दिन जुटे रहते हैं तथा नाना पाप करते चले जाते हैं, वह तो एक दिन नष्ट हो जाता है और आत्मा के साथ पाप-कर्म चिपटे हुए चलते हैं जो दुर्गति का कारण बनते हैं।
__ अशुचि-भावना पर पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने जो कविता लिखी है उसमें शरीर की यथार्थ स्थिति का बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है। कहा है
हंस का जीवित कारागार, अशुचि का है अक्षय भंडार । है बाहर का रूप मनोरम, सुन्दरता साकार, बहिष्टि मोहित होते हैं, विनय विवेक विसार । किस सामग्री से इस तन का हुआ बन्धु निर्माण, कैसे-कैसे जाग उठे हैं, इस शरीर में प्राण ।
सोचना है विवेक का सार, हंस का जीवित कारागार । कहते हैं-यह शरीर अपवित्र वस्तुओं का ऐसा भंडार है, जो कभी समाप्त नहीं होता, साथ ही आत्मारूपी हंस को कैद करके रखने वाला जबदस्त कारागार भी है।
किन्तु मूढ़ व्यक्ति विवेक के अभाव में ऊपरी रूप को देखकर इससे मोह रखते हैं तथा इसे वस्त्राभूषणों से सजाने और सुख पहुँचाने के लिए अहर्निश प्रयत्न करते रहते हैं। उन्हें विचार करना चाहिए कि कैसी-कैसी घिनौनी वस्तुओं से इसका निर्माण हुआ है और किस प्रकार इसमें प्राणों की स्थापना
. जीव इस शरीर को पाते समय नौ मास माता के उदर में रहकर घोर कष्ट पाता है और तब जन्म लेकर लम्बे समय तक बड़े असहाय रूप से समय व्यतीत करता है । न स्वयं अपनी उदर-पूर्ति कर पाता है और न ही अन्य कार्य करने की ही क्षमता रखता है । माता दूध पिला देती है तो पी लेता है, अन्यथा भूख से छटपटाता रहता है । न उस अवस्था में उसे किसी प्रकार का ज्ञान होता है न बल; और न ही विवेक जागृत हो पाता है। वर्षों के पश्चात् वह समझ हासिल करता है और तब अपना कार्य स्वयं करने की योग्यता प्राप्त
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