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कर आस्रव को निर्मूल
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जनक ने उत्तर दिया--"गुरुदेव ! मैं तो अपने महल में ही आनन्द से बैठा हुआ हूँ। मिथिला नगरी के महल मेरे नहीं हैं।"
जनक की यह बात सुनते ही व्यासजी के शिष्य एक-दूसरे का मुंह देखने लगे । उनकी समझ में कुछ नहीं आया । इस पर व्यासजी ने उन्हें बताया
"देखो ! जनक के महलों में आग लग जाने पर भी इनके मन में अस्थिरता या व्यग्रता नहीं आई और ये पूर्ववत् सत्संग के आध्यात्मिक आनन्द में डूबे हुए बैठे हैं । किन्तु आग तो लगी है राजमहल में, और तुम लोग अपने दंड-कमंडल लेकर यहाँ से भाग चलने को उद्यत हो गये हो । इस । घटना से भली-भाँति समझ लो कि जनक अपने ऐश्वर्य एवं पारिवारिक-जनों से कितने निस्पृह हैं । इनके हृदय में महल के जल जाने का भी खेद नहीं है पर तुम्हें अपने कमंडल के जलने की ही कितनी चिन्ता है ? स्पष्ट है कि इतने श्रोताओं में से केवल जनक ही सत्संग के सच्चे अभिलाषी हैं और इसीलिए मैं इनकी प्रतीक्षा करता हूँ।".
सभी शिष्य अब समझ गये कि वास्तव में ही जनक प्रतीक्षा किये जाने योग्य हैं । उनके प्रति रही हुई अपनी गलत भावनाओं के लिए वे अत्यन्त लज्जित हए और व्यासजी से क्षमा माँगने लगे। इसी बीच कृत्रिम आग ठंडी हो गई और जनक भी धीरे-धीरे उठकर अपने स्थान को चल दिये। .
तो बंधुओ, जनक ने आस्रव के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया था इसीलिए उन्होंने मोह-ममता, राग एवं लोभादि को सर्वथा त्याग दिया था क्योंकि ये सब कर्मों के आगमन का कारण बनते हैं।
वैसे आस्रव के बीस कारण हैं, जिनके मानस में विद्यमान रहने से कर्मबंधन होते रहते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय आदि । इन सभी पर समयाभाव के कारण अभी विवेचन नहीं किया जा सकता । पर इनमें से मिथ्यात्व अर्थात् अश्रद्धान जो पहला ही आस्रव का मार्ग है, यह सबसे जबर्दस्त है । मिथ्यात्व जहाँ होता है, वहाँ धर्म का अस्तित्व ही ठहरने नहीं पाता। तभी कविता में कहा है
मिथ्यात्व प्रथम आस्रव प्रभु ने बतलाया, मिट्टी में इसने हाय विवेक मिलाया । कर सम्यक् ज्ञान विनाश हमें भरमाया, विद्वानों पर भी अपना चक्र चलाया ।
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