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कर आस्रव को निर्मूल
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एक विद्वान कवि ने भी यही कहा है
कर आस्रव को निर्मूल मुक्ति अनुयायी ! है आत्म-गुणों का शत्रु यही दुखदायी। संसार वृक्ष का मूल विज्ञ कहते हैं, फल पा जिसके जग-जीव क्लेश सहते हैं। आस्रव सरिता में चेतन गुण बहते हैं, कर्मों से घिरे सदैव जीव रहते हैं। इसके कारण सन्मार्ग न दे दिखलाई।
___ कर आत्रव को । पद्य में उद्बोधन दिया गया है-अरे मुक्ति के इच्छुक भाई ! अगर तू मुक्ति की आकांक्षा रखता है तो आस्रव को जड़ से नष्ट कर । आस्रव आत्मा के सम्पूर्ण सद्गुणों का घोर शत्रु और अनन्त काल तक उसे कष्ट पहुँचाने वाला है ।
संसार रूपी वृक्ष का मूल आस्रव यानी कर्मों का आगमन ही है, जिसके कारण फल रूपी नाना प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। आस्रव को एक सरिता भी कहा जा सकता है, जिसमें अनन्त शक्ति रखने वाली परम ज्योतिर्मय आत्मा के उत्तम गुण बह जाते हैं और आत्मा कर्मों से घिरी रहती है । आस्रव के कारण व्यक्ति को संवर या निर्जरा का सद्मार्ग सुझाई नहीं देता।
किन्तु जो भव्य प्राणी कर्मों की भयंकरता को समझ लेते हैं, वे न संसार की किसी वस्तु पर द्वेष रखते हैं और न राग; उनके हृदय में न धन-वैभव को पाकर हर्ष का सागर उमड़ता है और न उसके जाने पर रंचमात्र भी खेद का अनुभव होता है । राजा जनक ऐसे ही विरागी पुरुष थे। उनसे सम्बन्धित एक घटना है
सच्चा सत्संग एक बार महर्षि व्यास घूमते-घामते जनक की मिथिला नगरी में पहुँच गये। उनके साथ उनके कई शिष्य भी थे। जनक को व्यासजी के मिथिला में आने पर अपार हर्ष हुआ और उन्होंने महर्षि से प्रार्थना की-"भगवन् ! जब तक आप यहाँ विराज रहे हैं, कृपया प्रतिदिन मुझे और नगर-निवासियों को सत्संग का लाभ प्रदान करें।"
व्यास जी ने सहर्ष इस प्रार्थना को स्वीकार किया और प्रतिदिन उनके निवासस्थान पर सत्संग होने लगा । पर एक बात थी कि अगर राजा जनक
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