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हंस का जीवित कारागार
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यहाँ कहा गया है-''अरे मूढ़ मानव ! तेरी उम्र तो क्षण-क्षण में और घड़ी-घड़ी में कम होती जा रही है । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार मिट्टी का ढेला जल से भीगते ही गलता चला जाता है। ऐसी स्थिति में मुक्ति के द्वार पर आकर भी तू सावधान क्यों नहीं होता ? स्त्री को जिस प्रकार बार-बार तेल नहीं चढ़ाया जाता उसी प्रकार यह जीवन भी पुनः-पुनः मिलने वाला नहीं है।"
बन्धुओ, प्राचीन कवि और महापुरुष आज के जैसी उच्च शिक्षा हासिल न करने पर भी आध्यात्मिक ज्ञान को मानस की तह में उतार देते थे। वे भलीभाँति महसूस करते थे कि मानव-जीवन ही मुक्ति का द्वार है। यानी चार गति और चौरासी लाख योनियों में से मात्र मनुष्य योनि ऐसी है, जिसमें आकर जीव आत्मा को कर्म-मुक्त करने का प्रयत्न कर सकता है और मोक्ष हासिल करने में समर्थ बन सकता है। इसीलिए कवि ने उद्बोधन दिया है-"अज्ञानी पुरुष ! इस बार तू चूक मत तथा भगवान की अखण्ड भक्ति करके जीवन का सच्चा लाभ उठा ले । इस जीवन में अगर तू पाप-कर्म करेगा तो ईश्वर से दूर होता चला जायगा और शुभ कार्य करके उससे मिल सकेगा। यह मनुष्य-भव ठीक जुए के खेल के समान है, अतः चाहे तो हारकर पुन: संसार-सागर में गोते लगाने चला जा और चाहे तो जीतकर 'ब्रह्म' की प्राप्ति कर ले।"
कहा भी गया है--
अशुचि भावना है विरक्ति का कारण सबल अनूप । चिंतन का चिंतन कर चेतन ! बन जा ज्योति स्वरूप । शीघ्र ही होगा बेड़ा पार, हंस का जीवित कारागार ॥
अर्थात्-शरीर की अपवित्रता और अनित्यता की भावना ही मनुष्य को इससे विरक्त बना सकती है । अतः हे चेतन ! पुनः-पुनः इसका चिंतन कर और आत्मा को पूर्णतया विशुद्ध बनाकर इसके अनन्त ज्योतिमान रूप को उजागर कर । परिणाम यह होगा कि इस शरीर रूपी कारागार से तुझे छुटकारा मिलेगा और बेड़ा पार हो जायेगा।
जो भव्य प्राणी इस भावना को अमल में लाएँगे, वे निश्चय ही इहलोक और परलोक में सुखी बनेंगे।
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