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हंस का जीवित कारागार
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१७
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों में से पैंतीस भेदों का संक्षिप्त में विवेचन हो चुका है । कल अन्यत्व भावना के विषय में हमने विचार किया था और आज 'अशुचि भावना ' को लेना है । 'अशुचि-भावना' बारह भावनाओं में से छठी है तथा शरीर की यथार्थ स्थिति को बताती है ।
पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने इस भावना को लेकर कहा हैकरत है स्नान और मन में गुमान आने,
सोचे नारी गर्भ मांही औंधे मुँह लटक्यो । शरीर असार, रस्सी, रुद्र, मांस, हाड़ भीजे,
चर्म शुकर नसाजाल बन्ध अटक्यो || अशुचि अपावन को थान एह देह गेह,
करे शिणगार शठ जोबन के भटक्यो । बिनसत बार नहीं सनत कुमार ऐसी,
भावना से दीक्षा गही संसार से छटक्यो ॥
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बन्धुओ, इस संसार में जीव चारों कषायों के वश में रहकर अनन्त काल से परिभ्रमण करता आ रहा है और जब तक कषाय सम्पूर्णतः नष्ट नहीं होंगे, इसी प्रकार चौरासी लाख योनियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर धारण करता हुआ भटकता भी रहेगा ।
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क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार कषाय । वैसे तो सभी एक से एक बढ़कर हैं और आत्मा को अनेकानेक कर्म-पाशों से जकड़कर बाँधने में
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