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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
से बोले-"हम स्वयं देख रहे हैं कि उन लोगों में आपके शरीर को लहू-लुहान कर दिया है और आपकी सब वस्तुएँ छीनकर ले गये हैं । आँखों-देखी भी क्या गलत हो सकती है भगवन् ?"
संत ने उत्तर दिया-"बन्धुओ ! तुम जो कुछ देख रहे हो यह असत्य नहीं है । पर यह शरीर तो 'मैं' नहीं हूँ । 'मैं' जो कुछ हूँ वह अपनी आत्मा से हूँ। मला बताओ ! मेरी आत्मा को कहाँ चोट लगी है ? उसका तो कुछ भी नहीं बिगड़ा, वह जैसी की तैसी है । रही बात वस्त्र-पात्र छीन ले जाने की । उसके लिए भी तुम किसलिए दुःख करते हो ? वे वस्तुएँ मेरा धन नहीं थीं । मेरा धन मेरी आत्मा के गुण हैं और वे सब सही सलामत हैं। एक भी उनमें से छीना नहीं गया। कोई उन्हें छीन भी कैसे सकता है ?"
संत की बात सुनकर लोगों की आँखें खुल गई और वे सोचने लगे"महाराज का उपदेश अभी तक हमने अधूरा सुना था, आज ही सच्चा उपदेश सुन सके हैं।"
बन्धुओ, यही यथार्थ और अन्यत्व भावना का सच्चा उदाहरण है । प्रत्येक मुमुक्षु को सतत यह विचार करना चाहिए
मानव, दानव, देव, नारकी, कीट पतंग नहीं हूँ । चाकर, ठाकुर, स्वामी-सेवक राजा प्रजा नहीं हूँ। लोकालोक-विलोकी हूँ मैं चिदानन्दमय चेतन । हैं यह सब पर्याय द्रव्यमय 'मैं' हूँ शुद्ध सनातन ॥ मैं हूँ सबसे भिन्न अन्य, अस्पृष्ट निराला । आत्मीय-सुख-सागर में नित रमने वाला। सब संयोगज भाव दे रहे मुझ को धोखा ।
हाय न जाना मैंने अपना रूप अनोखा ।। कवि श्री 'भारिल्ल' जी ने प्रेरणा दी है कि प्रत्येक मानव को इसी प्रकार अन्यत्व भावना माना चाहिए___"मैं न मनुष्य हूँ और न ही देव, नारकी, कीड़ा, पतिंगा या अन्य कोई प्राणी । न मैं किसी का नौकर हूँ और न ही मेरा कोई स्वामी, ठाकुर या राजा ही है । ये सब मैंने पर्यायें प्राप्त की थीं जो नष्ट होती गई हैं मैं तो लोकालोक को जानने की शक्ति रखने वाला, शाश्वत आनन्दमय चेतन हूँ अतः इन सबसे भिन्न और निराला ही हूँ। मेरी आत्मा तो सदा सुख के सागर में रमण करने वाली, सर्वथा शुद्ध और सनातन है।
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