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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
तो अज्ञानी व्यक्ति जो कि बालक के समान ही होता है, उसे सच्चा ज्ञान पाने के लिए तथा आत्मोन्नति के सही मार्ग को जानने के लिए सत्संगति करना आवश्यक है। अगर वह साधु-पुरुषों का समागम नहीं करेगा और उनसे धर्म का मर्म नहीं समझेगा तो केवल इच्छा मात्र से संवर या साधना के पथ पर कैसे बढ़ सकेगा ? शास्त्र भी कहते हैं
एगागिस्स हि चित्ताइं विचित्ताइं खणे खणे । उपज्जति वियंते य वसेवं सज्जणे जणे ॥
-बहत्कल्प भाष्य ५७११ अर्थात्-एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। अतः सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है।
वस्तुतः शास्त्र-वचन सत्य हैं। जो व्यक्ति इन पर अमल करते हैं यानी सन्त-समागम करते हैं वे कुछ न कुछ लाभ उठाते ही हैं। सज्जनों की संगति कभी निरर्थक नहीं जाती। अत्यल्प संगति का असर
कहते हैं कि एक बार भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी कहीं जाने के लिए ट्रेन में बैठे थे। उनके समीप ही एक व्यक्ति बैठा हुआ बीड़ी पी रहा था और समीप बैठे व्यक्तियों की परवाह किये बिना धुंआ छोड़ता जा रहा था।
राजेन्द्र बाबू ने उसे तनिक शिक्षा देने के अभिप्राय से पूछ लिया-"क्यों भाई ! यह बीड़ी जो तुम पी रहे हो, 'तुम्हारी ही है ?"
यह सुनकर वह व्यक्ति तनिक क्रोध से बोला--- "वाह, मेरी नहीं तो क्या किसी और की है ?"
इस पर राजेन्द्र बाबू बोले-“तो भाई ! फिर इससे निकला हुआ धुंआ भी तो तुम स्वयं रखो। इसे किसी और को क्यों देते हो ?" ___यह सुनकर व्यक्ति अपनी असभ्यता के लिए बड़ा लज्जित हुआ और बीड़ी बुझाकर खिड़की से बाहर फेंक दी। साथ ही उसने मन ही मन निश्चय किया कि अब वह कभी इस प्रकार बीड़ी नहीं पीयेगा ।
देखिये ! राजेन्द्र बाबू की अल्प-संगति से भी बीडी पीने वाले व्यक्ति पर कैसा असर हुआ ? तो जो व्यक्ति अधिक से अधिक सन्त-पुरुषों की संगति में रहेंगे, उन पर अच्छा प्रभाव क्यों नहीं पडेगा ? अवश्य ही पड़ेगा।
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